भारत को गणतंत्र हुए ६ दशक बीत गये हैं। इतने सालों में हमने कभी सोचा, जिस सोच से आगे बढ़े थे वो सोच न जाने कहा खोकर रह गई है।
गणतंत्र का अर्थ होता है हमारा संविधान – हमारी सरकार- हमारे कर्त्तव्य – हमारा अधिकार।
सोचिए क्या वास्तव में हमारा संविधान हमें बोलने का व अपने विचार रखने का अधिकार देता है। जवाब है नहीं !
पिछले कई वर्षों में भारत बहुत बदला है। प्रतिवर्ष की तरह फिर गणतंत्र दिवस आने वाला है। पर कुछ अनुत्तरित प्रश्न आज भी जस के तस कि-आखिर क्या हैं गणतंत्र दिवस के सही मायने? क्या आज का भारत गणतंत्र है? क्या यह वही भारत है जिसे ध्यान में रखकर संविधान लिखा गया होगा?
हमारे छोटे से छोटे कार्य में भी भ्रष्टाचार का तंत्र इस कदर हावी है कि हमें “गलत” व “सही” का एहसास ही नहीं हो पाता चाहें यह “सिस्टम” के कारण हो अथवा हमारे निजी स्वार्थ के कारण। यह भ्रष्टाचार रग रग में बस चुका है। क्योंकि सारा सिस्टम ही ऐसा है।
और भी कईं वाकये हमारी ज़िन्दगी में होते हैं – ट्रफ़िक पुलिस वाले को सौ की जगह पचास “खिलाने” की बात आये या फिर रेल में टिकट पक्की करने के लिये टिकट चैकर को “खिलाने” की बात हो। अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला हो जाये इसके लिये लाखों रूपये देने की बात हो ऐसा इसलिए भी हो रहा हेै क्यूंकि अधिकतर जगहों पर “देने” वाले तैयार बैठे हैं।
भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी हैं कि सरकार तभी कुछ कदम उठाती है जब उस पर अथवा किसी वर्ग पर उंगली उठे। और वो भी तब जब चुनाव हों। संविधान के कानूनों के दाँवपेंच में सरकार अपना उल्लू सीधा करने में कामयाब रहती है। किन्तु मामला एक तरफ़ा नहीं है। हम अपने वोट के अधिकार को अनदेखा कर देते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य याद रखने चाहियें। हमें अधिकार याद रहते हैं किन्तु कर्त्तव्य भूल जाते हैं। हर नागरिक को जागरुक होना पड़ेगा। हर अधिकारी अपना कर्त्तव्य निभाये और जनता के अधिकारों को पूरा करे। इसी तरह जनता यदि अपने कर्त्तव्यों को पहचाने तो ही कुछ हो सकता है। आज अजब सा विरोधाभास है। गणतंत्र दिवस उस संविधान के लिये है जिसके तहत जनता और सरकार दोनों में विश्वास पैदा होता है पर पिछले कुछ वर्षों में इतना सब हुआ कि जनता का सरकार व राजनैतिक दलों के ऊपर से विश्वास उठ गया है। यह चिन्ता का विषय है।
जय हिन्द
वन्देमातरम