रईस सिद्दीक़ी (भा. प्र. से. )पूर्व केंद्र निदेशक , आकाशवाणी भोपाल
अब वो भी फ़ख्र से कहे गा मेरा रोज़ा हैइसी तरह का क़िस्सा बचपन में मेरे वालिद साहब सुनाया करते थे, आप भी सुनिए:
किसी दूर-दराज़ के एक गाँव में एक ग़रीब, अनपढ़ मज़दूर मुस्लमान रहता था..वह भी रमज़ान में पूरे महीने रोज़ा रखता था. एक बार का वाक़्या है की एक विदेशी गोरे आदमी से उस मज़दूर ने पुछा ,क्या आप लोग भी हमारी तरह रोज़ा रखते हैं ?
उस विदेशी गोरे आदमी ने कहा : ये क्या बाला है ?
मज़दूर ने बड़ी मासूमियत से समझते हुए कहा :
हम लोग हर साल रमजान के महीने में सुबह से शाम तक कुछ नहीं खाते ,पानी भी नहीं पीते ,यहाँ तक की बीड़ी भी नहीं पी सकते हैं !
गोरे आदमी ने पुछा : क्या तुम्हारे गांव में खाने पीने का अकाल है जो भूके- प्यासे रहते हो, हमारे पास सब कुछ है , फिर हम रोज़ा क्यों रक्खें ?
वास्तव में आज भी यह सवाल किया जासकता है जिसका जवाब है :
रोज़ा और नमाज़ का मक़सद भूक को छुपाना या वक़्त गुज़ारी यानी टाइम पास नहीं है। ख़ुदा को खुश रखने और नमाज़ का काम आदमी को हर तरह की नापाकी और गुनाहों से दूर रखना है जबकि रोज़ा खुदा को खुश रखने के साथ साथ समाज की भूक और प्यास का गहरा एहसास ज़िंदा रखता है। रोज़ा आत्म- सयंम, धैर्य ,हमदर्दी, दूसरों की तकलीफ़ और दुःख -दर्द को समझने का मौक़ा देता है।
रमज़ान शब्द रम्ज़ से बना है जिसका अर्थ है गर्म रेत यानी ये महीना शरीर को सहन शक्ति प्रदान करते हुए जिस्म की गंदगी को दूर करता है , रोज़ादार को रूहानी गर्मी से तपा कर अपने नफ़्स पर काबू पाने की ट्रेनिंग देता है। हर तरह की लालच और ख्वाहिशों पर नियंतरण की आदत डालता है और आदमी का जिस्म और रूह तप कर कुंदन बन जाता है।
हज़रत मुहम्मद साहब (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ) फ़रमाते हैं:
इस मुबारक महीने में अल्लाह अपने बन्दों के गुनाह बख़्शता है और जिस्म में नयी जान अता करता है।
रोज़ा, प्रातः तीन बजे उठ कर चार बजे से पहले -पहल सैहरी करना, शाम सात बजे तक पानी की एक बूँद और अन्न का एक दाना मुंह में लिए बगैर इफ़्तार करना यानि 15 से 16 घंटे का रोज़ा रखना, पांच वक़्त की नमाज़ के अलावा रात नौ बजे से ग्यारह बजे तक २० रकअतें तराहवी की जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना, दिन में जब भी मौक़ा मिले क़ुरआन-ए -पाक की तिलावत करना और इन सब के साथ अपनी नौकरी, रोज़ी – रोटी के लिए काम करते रहना, रोज़ादार के लिए एक ऐसा अवसर है कि इस दौरान आत्म- निरिक्षण और आत्म सयंम की बेहतरीन ट्रेनिंग हो जाती है । जो लोग अपने नफ़्स पर क़ाबू नहीं कर पाते , वो लोग ज़िन्दगी भर कभी चैन और सुकून नहीं पाते और समाज के लिए भी वो कुछ नहीं कर पाते बल्कि समाज उनकी अनियंत्रित गतिविधियों का शिकार होता रहता है
माहे -रमज़ान में पर्शिक्षण के तौर पर , बेसहारों, बेकसों, मज़लूमों,यतीमों,बेवाओं ,ग़रीबों, महाजिरों , बीमारों के साथ विशेष हमदर्दी करने का एक सुनहरा मौक़ा है।
आलिमों,दानिश्वरों, तिब व मेडिकल के माहिरीन और वैज्ञानकों वग़ैरा, सब इस बात पर सहमत हैं की जिस्म और रूह के लिए पैग़ाम -इ- शिफ़ा है
उर्दू शायरों ने भी रोज़ा की बरकतों को अपने अपने अंदाज़ में शेरी जामा पहनाया है। पेश हैं कुछ शायरों के चुनिंदा अशार :
ख्वाहिशों को दिल में बंद करने का महीना आगया है
मुबारक हो मोमिनों , रमज़ान का महीना आगया है
—सिदरा करीम
ख़ैरो – बरकत बढ़ी ,माहे रमज़ान में
रब की रहमत हुई , माहे रमज़ान में
एक नेकी के बदले में सत्तर मिले
लाटरी लग गई , माहे रमज़ान में
फिर गुनाहों से तौबा का मौक़ा मिला
रूह रौशन हुई , माहे रमज़ान में
नियाज़ ,जो जिसने माँगा , ख़ुदा ने दिया
सब की क़िस्मत खुली, माहे रमज़ान में
——-नियाज़
चलो, रब को राज़ी कर लो
गुनाहों से तौबा कर लो
नेकियों से दामन भर लो
चलो, रब को राज़ी कर लो
—–उज़्मा अहमद
कितने पुरनूर हैं रोज़ादारों के चेहरे
दिन-रात वो रब से बस नूर कमाते हैं
——वसी अब्बास