क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
चहुंओर कोरोना युक्त अंधेरा है,
इसके बीच प्रकाश बने हैं हम।
डर लगता है खुद को छूने से,
अपनों से गले लगने के आस बने हैं हम।
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
शताब्दी बाद आई है फिर एक महामारी,
सदियों की भांति इसके भी खास बने हैं हम।
अपनों से मजबूरी वाली दूरियां बढ़ गई हैं,
पर दूर रह के भी रिश्तों के पास बने हैं हम।
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
प्रकृति से छेड़छाड़ का क्या होता है नतीजा,
कुदरत के इस कहर के आसपास बने हैं हम।
परिणाम हमारे सामने है, वातावरण एकदम शुद्ध है,
फिर भी अपने चेहरे पर मास्क पहने हैं हम।
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
जंगल हमने जला दी, बना दी इंसानी बस्तियां,
आज इन्हीं बस्तियों में बदहवास पड़े हैं हम।
सड़के हैं वीरान, गलियां आज सुनी है,
अपने इस तथाकथित विकास के विनाश बने हैं हम।
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
प्रकृति ने हमें हर बार चेताया,
पर सबकुछ जान कर अनजान बने हैं हम।
समय अब भी है, अपने को सुधारने के,
क्यों अपने ही आने वाली पीढ़ियों के नाश बने हैं हम ?
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
आज समय है प्रकृति के संरक्षण के,
चलिए इनके सेवा के विश्वास बने हम।
सदियों पुरानी इंसानी-प्रकृति के रिश्तों के,
फिर से संवारने के एक आस बने हम।
क्यों अपने ही घर प्रवास बने हैं हम ?
युवा कवि- अमित दुबे।