श्री गुरु रविदास जी 15वीं सदी के एक महान संत, दार्शनिक, कवि और समाज सुधारक विद्वान थे । उस वक़्त समज में बहुत सी बुराईआं चल रही थी , जैसे कि जातिपाति के आधार पर छुआछात , अस्पृश्यता , पाखण्डबाजी, बेसिरपैर के ढोंग करके पंडितों द्वारा लोगों को ठगना, इत्यादि ! गुरु रविदास जी ने अपने पूरे जीवन में ऐसी अनेक समाजिक बुराईओं से लोगों को छुटकारा दिलवाने के लिए अनेक अथक प्रयास किये , लोगों को समझाने की बड़ी कोशिश की कि यह जातिपाति , धर्म मज़हब सब व्यर्थ की बातें हैं , परमपिता प्रमात्मा ने तो सभी इन्सान एक जैसे और बराबर ही बनाये हैं और इनकी समाजिक पहचान के आधार पर किसी से भेदभाव करना बिलकुल ही ग़लत है ! फ़रवरी महीने में इनके जन्म दिवस के अवसर पर देश के अनेक भागों में , खास तौर पे पंजाब, हरियाणा , हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश में बहुत सारे सुन्दर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इनके अनुयाई इस दिन को एक त्यौहार की तरह ही मनाते हैं।
एक दलित परिवार में, गोवेर्धन पुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश में माता कलसा देवी और पिता संतोख दास जी के घर उन्होंने 1433 में अवतार लिया था ! उनके पिता जी अपने गाँव के प्रधान भी थे और चमड़े का काम किया करते थे और जीवन यापन के लिए जूते बनाकर बेचा करते थे ! वह बचपन से ही बहुत निडर, साहसी थे और उन में साफ़गोई से सच्चाई बयान करने की उनमें बड़ी हिम्मत थी ! बचपन से ही भगवान के प्रति भक्ति उनके ह्रदय में समाई हुई थी। उनको बहुत सारे उच्च जातियों द्वारा बनाये गए अपमानजनक नियमों और मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा था जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने लेखों / बाणी में भी किया है।
रविदास जी को बचपन से ही उच्च कुल वालों की हीन भावना का शिकार होना पड़ा था, और उन्होंने समाज की ऐसी व्यवस्था को बदलने के लिए अपनी कलम और बाणी का सहारा लिया, वे अपनी रचनाओं के द्वारा मनुष्य जीवन का उदेशय लोगों को समझाते. लोगों को शिक्षा देते कि इन्सान को बिना किसी भेदभाव के अपने सबसे एक समान प्रेम भावना से रहना सिखाया करते थे !
भगवान के प्रति उनका घनिष्ट प्रेम और भक्ति के कारण वो अपने पारिवारिक काम-धंधे और माता-पिता से दूर हो रहे थे, अत: यह सोचकर कि रविदास जी कहीं वैरागी ना बन जायें , उनके माता-पिता ने उनका विवाह, श्रीमती सोमा देवी और श्री सुजान दास जी की सुपुत्री – लोना देवी से करवा दिया और उनसे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम विजय दास रख दिया गया !
ब्रह्मज्ञान की बहुमूलय बख्शिश होने के बाद जब गुरु रविदास जी जगह – २ घूमकर अनेक प्रकार के भ्रमों में फंसे हुए लोगों को इस अंधकार से निकालने के लिए स्थान – २ जाकर सत्संग किया करते थे और जन साधारण को इस ज्ञान से वाक़िफ़ करवा रहे थे ! इन लम्बी – 2 कल्याण यात्राओं के दौरान पंजाब में चूहड़काना, सुल्तानपुर लोधी, ख़ुरालगढ़, गढ़शंकर, चकहकीम फगवाड़ा का भी भ्रमण किया ! वह लोगों को समझाने की कोशिश किया करते थे कि ईश्वर के बनाये हुए सभी प्राणियों से सबसे उत्तम रचना मानव जन्म है और इसका मूल उद्देश्य प्रभु प्राप्ति है , जोकि आप तब तक नहीं कर सकते जबतक आपके दिल में दूसरों के प्रति उनकी जातिपाति , धर्म मजहब की ऊँचनीच देखते हुए उनके साथ भेदभाव करते रहोगे ! सब बन्दे उस प्रमात्मा के ही बनाये हुए हैं और सबके साथ हमें सद्भावना , प्रेम, दया , करुणा और विनम्रता से व्यवहार करना चाहिए ! तो ऐसी ही उनकी एक कल्याण यात्रा के दौरान जब एक बार चूहड़काने (अब पाकिस्तान) में गुरु रविदास जी अपने कुच्छ और साथी साधु संतों (संत कबीर जी, नामदेव जी, तरलोचन जी, सदना जी और सेन जी) के संग अपनी जन कल्याण यात्रा पर निकले हुए थे, तब वहाँ नानक देव जी अपने एक बचपन के मित्र भाई मरदाना के संग इनका सत्संग सुनने आये ! यह सब साधु संत महात्मा जगह २, गाँव-2 घूमकर लोगों को प्रमात्मा के बारे में समझाते, अध्यात्मवाद पर प्रवचन करते और जाति-पाति में फँसे लोगों को इस भ्रमजाल से निकालने के लिए लोगों को प्रेरित किया करते थे और उनको ब्रह्मज्ञान की बहुमूल्य दात / बख्शिश देते | गुरु रविदास जी नानक देव जी से लगभग 36 वर्ष बड़े थे और अपने ज़माने के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी गुरु थे, और वह लोगों को रूढ़िवादी / अज्ञानतापूर्ण और तरह २ के भ्रमजाल से लोगों को निकालकर अध्यात्मवाद से जोड़ते हुए एक सच्चे भगवान की भक्ति करने के लिए प्रेरणा देते थे | नानक देव जी को भी बचपन से ही प्रमात्मा से इतना लगाव था और अक्सर अपना ज़्यदातर समय प्रभु सिमरण में ही लगाया करते थे, उनको अचानक गुरु रविदास जी की जब संगत करने का सुनहरी अवसर प्राप्त हुआ, तो उनको ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे किसी वर्षों से प्यासे इन्सान को कोई मीठा-निर्मल और तनमन को शीतलता प्रदान करने वाला अमृत जी भरकर पीने को मिल गया हो | गुरु रविदास जी से मिलकर, उनके प्रवचन सुनकर नानक देव जी ऐसे लगा कि बरसों से उनके भटकते हुए मन को जैसे अंदरूनी सुकून / ठहराव मिल गया हो, उनकी आत्मा की तृप्ति हो गई और उन्होंने सतगुर रविदास जी से ब्रह्मज्ञान की बेशकीमती बख्शिश प्राप्त की !
अकेले नानक देव जी ही नहीं , आपने अपनी दया दृष्टि से करोड़ों लोगों का उद्धार किया जैसे कि रानी मीरा बाई, सिकंदर लोधी, राजा पीपा और राजा नागरमल को भी ब्रह्मज्ञान की प्रप्ति सतगुरु रविदास जी से ही हुई । आपके श्रद्धालु आपको “सतगुरु”, “जगतगुरू” इत्यादि नामों से सम्बोधन किया करते थे । कहते हैं कि एक बार गुरु रविदास जी दिल्ली आये हुए थे और उस वक़्त दिल्ली में लोदी वंश का सुल्तान, सिकंदर लोधी किसी गम्भीर रोग से पीड़ित था और अनेक वैद हकीमों से इलाज करवाने के बावजूद भी वह स्वस्थ नहीं हो पा रहा था ! यह घटना 1509 की है और तब उनके एक मंत्री ने उनको सुझाव दिया कि एक महान पीर फ़क़ीर औलिया , जिसका नाम गुरु रविदास है , वह भी आजकल दिल्ली आया हुआ है , क्यों न आप उनके पास जाकर उनको अपनी परेशानी बताओ , हो सकता है वह आपको कोई ऐसी जड़ी-बूटी दे दें और आपका स्वस्थ अच्छा हो जाये ! अपने मंत्री के सुझाव पर अमल करते हुए सुल्तान सिकंदर लोधी तुगलकाबाद आये जहां गुरु रविदास जी कुछ महीनों के लिए ठहरे हुए थे ! सिकंदर लोधी की बीमारी सुनकर गुरु रविदास जी ने उनका इलाज किया और वह थोड़े ही दिनों में सुल्तान को स्वस्थ लाभ हो गया ! तब सिकंदर लोधी ने प्रसन्न होकर उनके अनुयाईओं के अनुरोध पर तुग़लकाबाद में 12 बीघा ज़मीन तोहफ़े और शुकराने के तौर पे दी थी , और बाद में गुरु रविदास जी के हज़ारों श्रद्धालुओं ने एक बड़े से मन्दिर का निर्माण किया !
गुरु रविदास जी ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का ही उपदेश दिया। उन्होंने यह भी समझाने का भरसक प्रयास किये कि यह जाति प्रथा और धर्म मज़हब पर आधारित सभी परम्पराएँ सरासर ग़लत और अवैज्ञानिक है और समाज का कोई भला करने बजाये नुकसान ही कर रही है ! “जात-पात के फ़ेर महिं उरस रह हि सब लोग / मनुष्यता को खात है , रैदास जाति का रोग !!” आगे चलकर वह और समझाते हुए कहते हैं कि कोई भी इन्सान अपनी जाति के कारण नहीं , बल्कि अपने कर्मों की वजह से ऊँचा या नीचा / अच्छा या बुरा बनता है : “जन्म जाति के कारण होत न कोई नीच / नर को नीच करि हारि , ओछे कर्म की कीच !!” केवल इतना ही नहीं, उन्होंने जातिपाति , छुआछात, कर्मकाण्ड, ढकोंसले और पाखण्डबाजियाँ करने वाले पण्डितों को बार – २ समझाने के प्रयत्न किये कि भगवान ने सभी इन्सान एक जैसी ही मिट्टी से बनाये हैं , सबका जन्म एक ही साधन से होता है और सभी एक ही प्रकार के हाड़ मास के पुतले हैं, तो फ़िर कोई छोटा , कोई बड़ा कैसे हो गया ? “एकै चैम एक मलमूत्र एक ख़ून एक गुदा / एक बूँद से सब उत्पना कैय बामन कैय सुदा ?” और – “रविदास उपजैय सब एक नूर से , ब्राह्मण मुल्ला शैख़ / सबको करता एक है , सबको एक ही पेख” ! लेकिन ब्राह्मणों की मानसिकता तो दूसरों को नीचा दिखाकर , उन्हें ऊल्लू बनाकर हमेशा उनसे पैसा ऐंठने की होती थी , जिसके लिए उन्होंने दलितों को हमेशा पढ़ने लिखने के रस्ते में रोड़े ही अटकाए, ताकि यह लोग अनपढ़ ही रहें और वह इन्हें अपनी मनमर्जी से ऐसे ही ठगते रहें ! तभी तो ब्राह्मणवादी / मनुवादी मानसिकता वाले एक ब्राह्मण कवि तुलसी दास लिखते हैं : “ढोल, गंवार , शूद्र, पशु, नारी / सकल ताड़न के अधिकारी ॥” लेकिन पूरे समाज का कल्याण करने वाले रविदास महाराज तो हमेशा ऐसे ही समाज की कल्पना करते हुए उसे धरातल पे लाने की कोशिश में लगे रहे, जिसमें सभी इन्सानों में समानता और भाईचारा हो , सभी मिल-जुलकर बसें ! इसीलिए उन्होंने तुलसीदास की इस ख़ोट पूर्ण मानसिकता पर प्रहार करते इसका जवाब दिया – ” ऐसा चाहूँ राज मैं , जहँ मिले सबन को अन्न / छोटे बड़े सब संग रहें , रैदास रहे प्रसन्न !!” आगे चलकर गुरु नानक देव जी ने भी गुरु रविदास जी की विचारधारा का समर्थन करते हुए नारी जाति का अपमान करने वालों को लताड़ते हुए उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि यह नारी ही है जिसने माँ बनके बड़े -२ ऋषिओं , मुनियों , पीर – पैगंबरों , राजे / महाराजे, महान विद्वानों और शूरवीर योद्धाओं को जन्म दिया और ऐसे में महिला वर्ग की शान में अपशब्द कहना बिलकुल उचित नहीं है – “सो क्यों मंदा आखिये जित जम्मे राजान !”
लेकिन तुलसी दास के एक और दोहे में उनकी घटिया मानसिकता नज़र आती है :- “पूजहि विप्र सकल गुण हीना / शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा ॥” अर्थातः ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुणों से रहित हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, शूद्र चाहे कितना भी गुणवान / ज्ञानी ध्यानी हो, लेकिन वह कभी पूजनीय नहीं हो सकता ।
गुरु रविदास जी ने इस ब्राह्मण कवि की प्रताड़ना करते हुए एक और दोहे में इसका उत्तर दिया : “रविदास ब्राह्मण मत पूजिए, जो होवे गुणहीन । पूजिए चरण चांडाल के, जो होवे गुण प्रवीण ॥
अर्थातः किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इसलिए नहीं पूजना चाहिए कि वह ऊँचे कुल / परिवार या जाति में जन्मा है , यदि उस में योग्य गुण नहीं हैं तो वह पूजने के क़ाबिल हरग़िज़ नहीं है ! अगर कोई व्यक्ति गुणवान है, भले ही वह किसी भी धर्म / जाति से सम्बन्ध रखने वाला क्यों न हो, तो उसका सम्मान करना चाहिए । इजत , मान सम्मान उसके गुणों की वजह से होना चाहिए , ना कि जातिपाति या धर्म मज़हब की वजह से ! गुरु महाराज ने सभी गरीबों , मजलूमों को भी समझाने की पुरज़ोर कोशिश की कि आपकी उन्नति और प्रगति का मार्ग केवल और केवल अच्छी विद्या हासिल करने से ही प्रशस्त होगा , और कोई साधन नहीं है ! “सत्य विद्या पढ़ें, सदा प्राप्त करें ज्ञान / रैदास कहैं बिन विद्या नर की जात अन्जान !!” केवल इतना ही नहीं , उन्होंने ग़ुलामी को भी एक पाप बताया और स्वतंत्रता हासिल करने का सबक सबसे पहले मानवता को समझाया – “प्राधीनता पाप है , जान लैय रे मीत / रविदास दास प्राधीन से , कौन करे है प्रीत ?”
सतगुरु रविदास महाराज जी के दिखलाये हुए इसी रास्ते और साधन को आगे चलकर दलितों के और चिंतकों , विद्वानों और समाज सुधारकों (जैसे कि राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले , रामास्वामी पेरियार, सावित्रीबाई फुले व उनकी सहयोगी / सहाध्यापिका, बीबी फ़ातिमा शेख़, रामजी सकपाल और बाबा साहेब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, वगैराह ) ने भी अपने २ तरीके से बल दिया और दलितों को पूरे जोरशोर से समझाने की कोशिश की कि अपने पराम्परागत काम धंधे छोड़कर पढ़ने लिखने की तरफ़ जब तक आप ध्यान नहीं देते , तबतक तुम्हारा कोई कल्याण नहीं होने वाला , और यह काम केवल आपको खुद ही करना पड़ेगा !
उनका पूर्ण विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्भावना का पालन करना अतिआवश्यक है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। उनके प्रवचनों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफ़ल हो सकता है, जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, किन्तु एक छोटे से शरीर वाली चींटी इन कणों को बड़ी सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्यागकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का सच्चा भक्त हो सकता है। गुरु रविदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित्त की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी।
जब सिखों के पाँचवें गुरु – गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में अपने धर्म ग्रन्थ के संपादन का काम शुरू किया, और उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया और इस ग्रंथ साहिब में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के दर्ज करने की अनुमति दी, तब उन्होंने गुरु रविदास जी की बाणी में से उनके लिखे हुए 40 शब्द और एक आरती को गुरु ग्रन्थ साहेब में स्थान दिया ! उनका कहना था कि मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौती के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गई कि – मन चंगा तो कठौती में गंगा। अपने आध्यात्मिक गुरु से ब्रह्मज्ञान की बेशकीमती बख्शिश पाकर, चित्तौड़ की रानी – मीरा बाई का बुझा-२ सा और सांसारिक दुःख तकलीफों का मारा हुआ मन भी पुल्कित हो उठा और वह प्रसन्नता से झूम-२ कर नाचने गाने लग गई – “पाइओ जी मैंने राम रतन धन पाइओ / वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुर, किरपा कर अपनायो / पाइओ जी मैंने राम रतन धन पाइओ !!” अपने सतगुरु की कृपा का गुणगान उन्होंने अपने एक और गीत में भी ऐसे किया – “गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी / चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।
गुरु रविदास जी की रचित आरती :-
नामु तेरो आरती भजनु मुरारे | हरि के नाम बिनु झूठे सगल पसारे || रहउ०
नाम तेरा आसानी नाम तेरा उरसा, नाम तेरा केसरो ले छिटकारे |
म तेरा अंभुला नाम तेरा चंदनोघसि, जपे नाम ले तुझहि कउ चारे |नाम तेरा दीवा नाम तेरो बाती, नाम तेरो तेल ले माहि पसारे |नाम तेरे की जोति जलाई, भइओ उजिआरो भवन समलारे |नाम तेरो तागा नाम फूल माला, भार अठारह सगल जुठारे |तेरो किया तुझही किया अरपउ, नामु तेरा तुही चंवर ढोलारे |दस अठा अठसठे चार खाणी, इहै वरतणि है संगल संसारे |कहै रविदास नाम तेरो आरती, सतिनाम है हरि भोग तुम्हारे |
इसका भावार्थ : श्री गुरु रविदास जी महाराज इस आरती में परमपिता प्रमात्मा से कहते हैं – “हे प्रभु ! आपका का नाम 68 तीर्थों के बराबर , यह अत्यंत ही पवित्र है और इसके जपने मात्र से हमारे मन की सब बुराईओं निकल जाती हैं ! प्रमात्मा के सिमरण के बिना संसार में आदमी द्वारा किये गए सभी काम झूठे हैं , बेकार हैं ! अगर कोई इन्सान सच्चे मन से प्रमात्मा के नाम का सिमरण नहीं करता , लेकिन बड़े – २ दिखलावे करता है , तो वह दिखलावे आडम्बर और पाखंड मात्र ही है , सब व्यर्थ हैं ! सतगुरु रविदास जी ईश्वर की भक्तिभाव में मगन होकर कहते हैं – हे प्रभु मैंने तेरे नाम का आसन बिछा लिया है , जिसपर बैठकर मैं तुझे याद करता हूँ , तेरे ही नाम से मैंने चन्दन रगड़ने वाला पत्थर बनाया है, जिसपर केसर रगड़कर इसका लेप तेरी ही मूर्ति पर लगाया करता हूँ ! तेरा नाम अविनाशी है , तेरा नाम ही चन्दन है , तेरे नाम का जाप चन्दन की माला जैसा है , यही तेरे नाम का चन्दन मैं तेरे ऊपर लगाता हूँ ! तेरे नाम का सिमरण दीपक ही है , उसी दीपक में जलने वाला तेल भी है , बाती भी है ! तेरे ही नाम की मैंने ज्योत जलाई है , अर्थात ऐसा करने से मेरा मन मन्दिर तेरे प्रकाश से रौशन हो गया है ! केवल इतना ही नहीं , तेरे नाम के सिमरन से पूरा विश्व जगमग करने लग गया है ! तेरे ही नाम के धागे से तेरे ही नाम के फूलों की माला मैंने बनाई है , और ऐसे फूलों की माला के सामने पूरी सृष्टि में समस्त बनस्पति के फ़ूल भी झूठे हैं ! अर्थात – तेरे नाम के फूलों की माला बड़ी अनमोल है , क्योंकि पूरी सृष्टि का रचनहार भी तूं ही है ! तो फ़िर मैं तेरी बनाई हुई सृष्टि में से तुझे क्या अर्पण करूँ ? तुझे क्या भेंट करूं ? भौतिकवादी माला में पिरोये गए मणके सब झूठे / बेकार है, एक पाक पवित्र स्वछ मन के सामने ! मेरे लिए तो यही सही होगा कि मैं तेरे नाम सिमरण का चवर ही तुझे झुलाता रहूँ !
आगे चलकर श्री गुरु रावदास जी महाराज खेद व्यक्त करते हुए हमें समझाने की कोशिश करते हैं कि पूरा संसार 18 पुराण पढ़ने में लगा रहता है , और यह लोग 68 तीर्थों (मठों) का स्नान करना बड़ा ही पवित्र समझते हैं , एक पुण्य कर्म समझते हैं ! और इस तरह चारों खानों की चौरासी योनियों में जीव भटकते रहते है ! चार खानों का अर्थ है – पूरी दुनियाँ में जीवों की उत्पति के चार स्तोत्र हैं – जैसे कि (1) ज्योर (बीजाण्डासन या अपरा) से पैदा होने वाले जीवों को ज़ीरज कहते हैं , (2) अण्डों से पैदा होने वाले जीवों को अण्डज कहते हैं , (3) समुन्द्रों और झीलों में समुद्री शैवाल से तरल उर्वरक से पैदा होने वाले जीव / पौदे और (4) पानी और पृथ्वी पर पैदा होने वाले (ऊतक) जीव जन्तु ! और पूरी दुनियाँ इन चार किस्म से जीवों की उत्पति में ही उलझी हुई है ! इसका भाव यह है कि इतने सारे कर्म काण्ड करने से भी 84 योनियों से छुटकारा हासिल नहीं हो सकता ! इन चौरासी के चक्कर से निकलने का एक मात्र रास्ता है – प्रभु का नाम जपने से और उसके दिखलाये गए मार्ग पर चलते हुए ही मानव इस खेल से बाहर निकल सकता है ! आपका ही बनाया हुआ मन जो मेरे इस शरीर रूपी मन्दिर में आपने सजाया हुआ है, यही मन मैं आपको भेंट करता हूँ और इसके ही पंखे से मैं आपको हवा देता हूँ , अर्थात मैं आपके सिमरण का जाप करता हूँ , सिमरण करने से ही निरंकार की अनुकम्पा हमेशा हम पर बनी रहती है ! बस हमें यह बात पहचानने और अपने मन में अच्छी तरह बिठाने की आवश्यकता है ! प्रमात्मा का सिमरण ही पवित्र और अति उत्तम साधन है और इसको कोई भी दुनियावी वस्तु अपवित्र नहीं कर सकती !
अंत में अपना स्पष्ट फैसला सुनाते हुए सतगुर रविदास जी महाराज फ़रमाते हैं कि सच्चे मन से परमपिता प्रमत्मा का सिमरण करना और उसकी उस्तुति करना ही सच्ची भक्ति है, सच्ची आरती है (मिट्टी के तेल के दिये एक बड़े से थाल में सजाकर, ढोल नगाड़े बजाते हुए इधर उधर घुमाने से ईश्वर प्राप्त नहीं हो सकते ) ! और ऐसे परमात्मा की सच्ची भक्ति करने वाले सदा उसे उसके नाम का ही भोग लगाते हैं ! अत: अपने ह्रदय में उसके ही नाम का दिया जलाओ ! केवल यही हमारे ह्रदय को पवित्र कर सकता है , कोई मिट्टी के तेल या फ़िर देसी घी के दिए जलाने की कोई आवश्यकता हरगिज नहीं है !
ब्रह्मलीन होना : समाज में बराबरी, सभी भगवान एक है, इन्सानियत उनकी अच्छाई और बहुत से कारणों की वजह से बदलते समय के साथ सतगुरु रविदास के अनुयाईओं की संख्या लाखों में हो गई थी। दूसरी तरफ, उनका बढ़ता हुआ वर्चव्य कुछ ब्राह्मणों को हज़म नहीं हो रहा था , अत: उन्होंने और पीरन दित्ता मिरासी ने सतगुरु जी को मारने की एक साज़िश रची ! इसके अंतर्गत इन लोगों ने सतगुरु को एक एकांत जगह पर अध्यात्मवाद पर चर्चा के लिए बुलाया , हालाँकि गुरु साहेब को अपनी दिव्या शक्ति की वजह से पहले से ही सब कुछ पता चल गया था ! जैसे ही चर्चा शुरु हुई, सतगुर जी उन्ही के एक साथी – भल्ला नाथ के रुप में दिखाई दिये, और उन्होंने उसकी हत्या कर दी ! बाद में जब सतगुरु जी ने अपने घर में जाकर शंखनाद किया, तो सभी हत्यारे सतगुरु को ज़िन्दा देखकर भौंचक्के रह गये, और उन्हें अपने पाँव के नीचे से जमीन खिसकती हुई प्रतीत हुई ! फ़िर वह भागे – २ हत्या के स्थान पर गये जहाँ पर उन्होंने गुरु रविदास की जगह अपने ही एक साथी भल्ला नाथ की लाश देखी । उन में से कुछ लोगो को उसी वक़्त इस सत्यता का आभास हो गया था , यह रविदास जी ही सच्चे सतगुरु हैं, वक़्त के पैगम्बर हैं ! उन सभी को अपने कृत्य पर बड़ा पछतावा हुआ और वो लोग गुरु रविदास जी से माफ़ी माँगने उनके घर गये। लेकिन बाकी लोग तब भी समझ नहीं पाए और बाद में भी उनको मारने के लिए तरह २ की साज़िशें रचते रहे , लकिन उन्हें कभी कामयाबी हासिल नहीं हुई !
हालाँकि, उनके कुछ अनुयाईओं / धार्मिक साहित्कारों का यह भी मानना है कि बाबा रविदास जी प्राकृतिक रुप से ही 126 वर्ष की लम्बी उम्र भोगने के बाद वाराणसी में 1559 में ब्रह्मलीन हो गए थे ।
द्वारा : आर डी भारद्वाज “नूरपुरी “