9दिसंबर को अपने समय के हिंदी के लोकप्रिय साहित्यकार कुशवाहा कान्त की जयंती है (1918)। ऐसा साहित्यकार जो उम्र के पच्चीसवें साल तक पहुँचते-पहुँचते बेस्ट सेलर रचनाओं की श्रृंखला दे रहा था। लालरेखा, विद्रोही सुभाष, लालकिला जैसी रचनाएं कर अमर हो गए। 9दिसंबर को 25 राज्यों से जुड़ी आरजेएस फैमिली ने भारत के ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी साहित्यकार को कोटि-कोटि नमन किया। इनपर सुरेंद्र कुशवाहा,ओंकार कुशवाहा, अनुराग जी और विकाश आनंद आदि ने इन्हें याद किया।
आरजेएस राष्ट्रीय संयोजक उदय कुमार मन्ना ने कहा कि तेज दिमाग,लेखन और कल्पनाशीलता बचपन से ही उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थे। कुशवाहा कांत ने नौवीं कक्षा में ही “खून का प्यासा” नामक जासूसी उपन्यास लिख डाला था। 1940 से 1950 के दशक में हिंदी पीढ़ी उनकी रचनाओं की इस तरह दीवानी थी कि उनके नए उपन्यास का लोग बेसब्री से इंतजार करते थे। उनके उपन्यास रूमानी,रहस्य,रोमांच के साथ साथ क्रांतिकारी भी हैं।हिंदी उपन्यास के पाठकों में गुलशन नंदा के समान कुशवाहा कांत भी लोकप्रिय थे । कुशवाहा कांत की ज्यादातर किताबें उनके गृह प्रकाशन वाराणसी के चिंगारी प्रेस से छपी थी । उन दिनों वाराणसी हिंदी साहित्य प्रकाशन जगत का केंद्र हुआ करता था और बड़े अखबार यहां से प्रकाशित होते थे हिंदी प्रचारक संस्थान चौखंबा विद्याभवन जैसे तमाम बड़े प्रकाशक बनारस में ही थे कुशवाहा कांत लेखन के साथ-साथ अपने चिंगारी प्रकाशन को भी नई ऊंचाइयों तक ले गए। ।शोद्धार्थी विकाश आनंद बताते हैं कि कुशवाहा कांत ‘महाकवि मोची’ के नाम से कई नाटक तथा व्यंग कवितायें आदि भी लिखीं हैं। जबकि अन्य कई रचनाएं कुँवर कान्ता प्रसाद के नाम से भी लिखीं। जबकि बाद में कुशवाहा कान्त के नाम से लिखने लगे थे। इनका प्रमाण पत्र वाला नाम कान्त प्रसाद कुशवाहा था। 35 से ज्यादा उपन्यासों के रचनाकार हैं कुशवाहा कान्त पपीहरा परदेसी पारस जंजीर मद भरे नैना नागिन उसके साजन जवानी के दिन हमारी गलियां खून का प्यासा गोल निशान निर्मोही और चूड़ियां आदि पाठकों द्वारा बहुत ही पसंद की गई । विकाश आनंद बताते हैं कि इनके कुछ उपन्यास – लाल रेखा, पपिहरा (पपरिहा), परदेसी (दो भागों में), पारस, जंजीर, मदभरे नयना, नागिन, विद्रोही सुभाष, उसके साजन, जवानी के दिन, हमारी गलियां, खून का प्यासा(प्रथम भाग), रक्त मंदिर(द्वितीय भाग), दानव देश(तृतीय भाग), गोल निशान, उङते-उङते (चिंगारी पत्रिका में प्रकाशित स्तंभों का संकलन), पराजिता, काला भूत, कैसे कहूँ, लाल किले की ओर, निर्मोही, लवंग, नीलम, आहूति, बसेरा, इशारा, जलन, कुंकुम, पागल, मंजिल, भंवरा, चूङियाँ, अकेला, अपना पराया आदि पाठकों द्वारा बहुत ही पसंद की गईं। मिर्जापुर के महुअरिया में जन्मे कुशवाहा कान्त की मौत आज के बनारस के कबीर चौरा के पास रात में घात लगाकर किये गए एक जानलेवा हमले में ( में मात्र 33 साल की उम्र में 29फरवरी1952 को हो गई ।हिंदी साहित्य का महान उपन्यासकार की इस तरह की निर्मम हत्या ने पाठकों को ही नहीं उदास किया बल्कि तत्कालीन व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करता है हत्या की कोई पुख्ता जाँच नहीं करवाई गई। आज भी सच पर पर्दा है। भारत के इस महान साहित्यकार को आरजेएस फैमिली की ओर से कोटि-कोटि नमन।