सिनेमा बनाने वाले बड़े-बड़े लोग चाहे कितनी भी बड़ी ताकत रखते हैं, मगर राजनीति से लड़ने से वे डरते हैं।
प्रेमबाबू शर्मा
हमारा सिनेमा हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाता है और दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र भी है। हमारे देश में 80 करोड़ लोग राजनीति की दशा-दिशा तय करने के लिए वोट डालते हैं वे राजनीति को जीते भी हैं और झेलते भी हैं। चुनाव ही सबसे बड़ा व्यापार भी है। फिर भी हमारे देश में राजनीति पर फिल्में बहुत कम बनती आखिर क्यों ? जो फिल्में बनती भी है,वो मसाला फिल्में होती है। आपको यह जानकर आश्र्चय हो सकता है कि जो देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो, जिस देश के हर गांव, गली और मोहल्ले तक में कोई न कोई राजनीतिक कार्यकर्ता बसता हो, उस देश में कई-कई सालों तक राजनीति पर फिल्में ही नहीं बनती। हमारी राजनीति में ग्लैमर है। ताकत है। नखरे हैं। नाटक है। मंसूबे हैं। उन मंसूबों पर फिरता हुआ बहुत सारा पानी भी है। इसके अलावा हमारी राजनीति में बड़े बड़े वंश हैं। उन वंशों की विरासत है। हर तरह के रंग हैं विरासतों के वारिस हैं। उन वारिसों की वंचित हो जाने की व्यथाएं हैं। और इस सबके साथ-साथ राजनीति की रंगीन कहानियों में सेक्स का संसार भी सहज समाया हुआ है। मतलब, हर तरह के किस्से हैं। कहानियां है और जिंदगी की पटकथाओं के रंग भी हैं। ये ही रंग राजनीति की इस नौटंकी को जिंदगी से भी ज्यादा बड़ा बना डालते हैं। लेकिन फिर भी राजनीति के इस नाटक को सिनेमा के परदे पर लाने में हमारा सिनेमा अक्सर बहुत कतराता हुआ सा लगता है।
जरा याद कीजिए, दिमाग पर जोर डालिए। अजय देवगण की एक फिल्म ‘सिंहम रिर्टन’ में धार्मिक गुरूओं व राजनीती में अपनी रोटी सेकने वालो की कहानी को दिखाया गया था,किस तरह से भोले भाले लोगों की भावनाओं से खेलते और रास्ते में आने वाले ईमानदार नेताओं को उडा दिया जाता है,यही सब चिरंजीवी व जूही चावला अभिनीत फिल्म‘प्रतिबंध’ में भी दिखाया गया जो कि देश की राजनीती और राजनीतीज्ञों पर एक प्रश्नचिंह लगाता है।
केसी बोकाड़िया की मल्लिका शेरावत की मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘‘डर्टी पॉलिटिक्स’ से पहले याद कीजिये, राजनीति पर कौन सी फिल्म बनी थी। निश्चित रूप से ज्यादातर लोग इस सवाल के जवाब में प्रकाश झा की फिल्म ‘‘राजनीति’ पर जाकर रुक जाएंगे। लेकिन ‘‘राजनीति’ तो सन 2010 में आई थी। इतना बड़ा देश। इतनी बड़ी राजनीति। और पूरे पांच साल बाद सिर्फ एक फिल्म। यह राजनीति की ताकत है।जो हमारे फिल्मकारों की राह में रोड़े अटकाती है, उलझनें पैदा करती है और कोई कलई खुल जाने के डर से खुद पर सिनेमा रचने से रोकती है। राजस्थान में कांग्रेस के मंत्री महिपाल मदेरणा और नर्स से गायिका बनी भंवरी देवी की असल जिंदगी के रंगीन रिश्तों की सच्ची कहानी पर बनी केसी बोकाड़िया की इस फिल्म में मल्लिका शेरावत ने भंवरी के रोल में जान फूंक दी थी। फिल्म पर बहुत विवाद हुए, लेकिन इस सबके बावजूद सफल रही।पुराना है सिलसिला1975 में गुलजार के निर्देशन में बनी संजीव कुमार और सुचित्रा सेन की मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘‘आंधी’ की कहानी के बारे में कहा जाता है कि वह इंदिरा गांधी की जीवनी के बहुत करीब थी। इस फिल्म में सुचित्रा सेन का गेटअप भी काफी हद तक तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मेल खाता है। इंदिरा गांधी की छवि को आंच न आए, इसके लिये फिल्म पर बैन लगा दिया गया। लेकिन बाद में जब यह फिल्म रिलीज हुई, तो गजब की सफल रही। उसके गीत तो आज तक लोगों की जुबां पर हैं। इसके ठीक बाद 1977 में आई अमृत नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी का‘‘ को देश में लगी इमरजेंसी की सर्वाधिक चर्चित फिल्म माना जाता है। राज बब्बर और शबाना आजमी की इस फिल्म में सियासत के षड्यंत्रों की पोल खोलते हुए राजनीति और राजनेताओं पर बहुत तीखा प्रहार किया गया था। रिलीज से पहले बहुत विवाद हुआ। ‘‘किस्सा कुर्सी का‘‘ पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया सरकार पर इसके निगेटिव और प्रिंट दोनों जला दिए जाने के आरोप भी लगे थे। बाद में बहुत सारा काट-छांट के बाद जब यह फिल्म रिलीज हुई, तो कहते हैं इस फिल्म की धार लगभग भोंथरी हो चुकी थी। लेकिन फिर भी यह फिल्म खूब चली। ‘‘किस्सा कुर्सी का‘‘ की राजनीतिक रोशनी से इसके निर्माता अमृत नाहटा की चमक में इतना निखार आया कि वे खुद भी बाडमेर से लोकसभा के सांसद चुनकर राजनीति में आ गए। मुख्य कलाकार राज बब्बर और शबाना आजमी भी राजनीति में सितारा बन कर चमक रहे हैं। अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘‘इंकलाब’ में भी राजनीति दिखाने का प्रयास किया गया था। 1984 में आई इस फिल्म में अमिताभ बच्चन एक नौजवान पुलिस ऑफिसर के रूप में समाज की सेवा करते हुए एक षड्यंत्र के तहत राजनीति के दलदल में फंसते चले जाते हैं। अंत में जब वह चुनाव जीत जाते हैं तो राजनीति करते हुए देश को धोखा देने वाले कई नेताओं को मार देते हैं। इसके बाद अमिताभ खुद को कानून के हवाले कर देते हैं।
1989 में रिलीज हुई अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘‘मैं आजाद हूं‘‘ को भी राजनीति पर बनी फिल्मों के रूप में ही याद किया जा सकता है। ‘‘मैं आजाद हूं‘‘ में गांव से शहर आए अमिताभ बच्चन को राजनीति से जुड़े लोग बेवकूफ बनाकर अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। नेता लोगों की असलियत का पता चलते ही अमिताभ खुद को इस्तेमाल न होने देने के लिए और खासकर नेताओं के मंसूबों पर पानी फेर देने के लिए सचमुच इमारत से कूदकर अपनी जान दे देते हैं।
विषय की गहराई तक जाकर फिल्म बनाने वाले निर्माता राम गोपाल वर्मा ने भी राजनीति को आधार बनाकर फिल्में बनाई हैं। छात्र राजनीति पर 1990 में आई उनकी फिल्म फिल्म ‘‘शिवा‘‘ को नागार्जुन की मुख्य भूमिका वाली हिंदी की बहुत सफल फिल्म माना जाता है। वर्मा ने ही बाद में अमिताभ बच्चन को लेकर ‘‘सरकार’ भी बनाई। सरकार तो बाल ठाकरे की स्टाइल पर बनी फिल्म थी, जो शुरू-शुरू में तो बहुत विवाद में रही। उसके बाद जब शिवसेना को लगा कि इससे बाल ठाकरे की छवि को नुकसान नहीं होगा, तो वह नरम पड़ी। रामगोपाल वर्मा की शिवा के अलावा छात्र राजनीति पर जो फिल्में बनी हैं उनमें ‘‘युवा’, ‘‘हासिल’, ‘‘गुलाल’, ‘‘उत्थान’ और ‘‘बस इतना सा ख्वाब है’ प्रमुख है। इस तरह की कई भारतीय फिल्में राजनीतिक संवाद करने में सक्षम रहीं है। कई फिल्मों में बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि को दिखाया गया है। 2014 में आई धनुष की फिल्म ‘‘रांझना’ में भी अब देश में करीब करीब समाप्त हो चुकी छात्र राजनीति और उनके चुनाव को दिखाया गया था। इन सबसे बहुत पहले देश के विभाजन के तत्काल बाद विभाजन की व्यथा पर ‘‘गर्म हवा’ फिल्म आई थी, जिसमें जीवन के यथार्थ को जस का तस रख दिखाया गया था। लेकिन ‘‘गर्म हवा’ के बरसों बाद उसी के जैसे संवेदनात्मक धरातल पर बनी सनी देओल की ‘‘गदर’ विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म थी। राजनीति में व्यावसायिक विकल्पबिहार की राजनीति कुख्यात होने की हद तक विख्यात है, यह सभी जानते हैं। फिर प्रकाश झा तो बिहार के ही हैं और राजनीति में विश्वास तो रखते ही हैं, उसमें व्यावसायिक विकल्प भी तलाशते रहते हैं। इसी कारण उन्होंने पिछला लोकसभा चुनाव भी चंपारण से लड़ा था, जिसे वे हार गए थे। प्रकाश झा ने अपनी फिल्म ‘‘गंगाजल’, के अलावा ‘‘सत्याग्रह’, ‘‘दामुल’, ‘‘आरक्षण’, ‘‘अपहरण’ आदि फिल्मों में राजनीति की असलियत, राजनेताओं के चरित्र और राजनीतिक माहौल से बिगड़ते हालात को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। लेकिन असल बात यह है कि प्रकाश झा की इन सारी की सारी फिल्मों में वह गहराई नहीं है , जो ‘‘गर्म हवा’, ‘‘आंधी’, ‘‘किस्सा कुर्सी का’ आदि में थी। उनकी फिल्मों की लपट तो राजनीतिक है मगर कथा और पटकथा दोनों ही बहुत साधारण होती है।राजनेताओं का हस्तक्षेप हालांकि यह सब इसलिए है क्योंकि प्रकाश झा बाजार के आदमी हैं और इसीलिए वे शायद वह समझ गए हैं कि बाजार की डिमांड भी यही है। झा समझदार आदमी हैं, सो जानते हैं कि ज्यादा गंभीर और व्यक्ति आधारित कहानी के फिसल जाने का खतरा तो होता ही है, टांग अड़ाई भी बहुत होती है। फिल्मकार केसी बोकाड़िया मानते हैं कि हमारे देश में अगर राजनीति को विषय बनाकर फिल्म बनाई जाए, तो बहुत चलेगी। क्योंकि लगभग 80 करोड़ मतदाता हैं। बहुत सारे लोग देखते हैं। वे रोज राजनीति को जीते भी हैं और झेलते भी हैं। सो परदे पर देखना उन्हें पसंद भी है। लेकिन बोकाड़िया यह भी कहते हैं कि राजनीति पर फिल्म बनाने की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि राजनेता उसमें बहुत हस्तक्षेप करते हैं। क्योंकि राजनीति में बहुत ताकत होती है। उनकी न मानो तो वे बनी बनाई फिल्म को अटकाने की ताकत भी दिखाते रहते हैं। हमारे फिल्मकार इसी कारण राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाने के पचड़े में कम ही पड़ते हैं। फिल्मकार और पूर्व सांसद श्याम बेनेगल हमारे देश के सेंसर को काफी संवेदनशील बताते हुए कहते है कि अगर हमने चाह कर भी एक राजनीतिक फिल्म बना ली तो सेंसर अपनी कैंची लिए खड़ा हो जाता है। किसी भी पार्टी या किसी भी समुदाय के मकसद और उनके दृष्टिकोण के बारे में सिनेमा के परदे पर फिल्म के रूप में दिखने में राजनीति बहुत आड़े आती है। यही वजह है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बाद भी भारत में राजनीति और राजनेताओं पर आधारित सिनेमा बनना बहुत मुश्किल है। आज के राजनीतिक सिनेमा से जिंदगी गायब और उस पर बाजार का दबाव साफ दिखता है। जानते हैं राजनीति की ताकत राजनीति जानती है कि उसके पास ताकत है। उस ताकत के बूते पर राजनीति के लिए सिनेमा सिर्फ कागज पर लिखी प्रतिबंध की दो लाइनों में सिमट जानेवाला संसार है। राजनीति का छोटे से छोटा व्यक्ति भी किसी भी फिल्म को अटका सकता है। विषय से भटका सकता है। हमारा सिनेमा राजनीति की इस ताकत और तासीर को समझता है। यही वजह है कि सिनेमा बनाने वाले बड़े-बड़े लोग चाहे कितनी भी बड़ी ताकत रखते हैं, मगर राजनीति से लड़ने से वे डरते हैं। सो, राजनीति पर हमारे देश में फिल्में बहुत कम बनती हैं। और जो बनती भी हैं, तो बेजान सी लगती हैं। बात गलत तो नहीं?