पेट की आग और रोटी की आस

डॉक्टर सरोज व्यास 
प्रधानाचार्य,  इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली

(sarojvyas85@gmail.com)

स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर २१ वीं सदी के २०१३ तक सैद्धांतिक रूप से हमने शिक्षा में उत्कृष्टता एवं गुणवत्ता लाने का भरसक प्रयास किया और कर रहे हैं | राधाकृष्णन कमीशन, नयी शिक्षा नीति और नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार नामक आयोगों तथा अधिनियमों का एकमात्र उद्देश्य पूर्ण साक्षरता प्राप्ति रहा है | निर्विवाद सत्य यह भी है कि हमने शिक्षा के क्षेत्र में निर्धारित उद्देश्यों को काफी हद्द तक प्राप्त भी कर लिया | साक्षरता दर प्रति वर्ष बढती जा रही है | इस कथन की सत्यता को प्रमाणित करने हेतु विभिन्न अनुसंधानों द्वारा एकत्रित किये गये आंकड़े भी हमारे पास उपलब्ध है, लेकिन पूर्व में निर्धारित एक मूलभूत उद्देश्य निरंतर अनदेखा हो रहा है और वह है ‘गुणवत्ता’ |

शिक्षा के वर्तमान स्वरुप में गुणवत्ता शब्द ही गौण हो गया है, क्योंकि शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर हमारा दृष्टिकोण ही संकुचित रहा है | सदैव साक्षरता की चर्चा चारों ओर सुनाई देती है, अधिक-से-अधिक लोग पढना और लिखना सीखें , लोगों को अक्षर का ज्ञान हो, इतना ही नहीं सरकारी और गैर- सरकारी स्कूलों में नामांकन के आंकड़ों में भी निरंतर वृद्धि हुई है | ऐसे में हमें कॉलर ऊपर करने का अधिकार है | लेकिन क्या सचमुच स्वतंत्र होते प्रौढ़ भारत ने शिक्षा के इसी रूप की कल्पना की होगी ? कदापि नहीं | संख्यात्मक वृद्धि से विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं किया जा सकता अपितु वृद्धि के लिए गुणात्मक सुधारों एवं उच्च-स्तरीय मापदंडों की कसौटी पर स्वयं को कसे जाने की आवश्यकता है | शिक्षा शब्द की उत्पत्ति शिक्ष धातु से हुई है जिसका तात्पर्य है सीखना | सीखने से यहाँ मेरा अभिप्राय अक्षर-ज्ञान नहीं है बल्कि सीखने का अर्थ है संस्कारों, विचारों, मूल्यों और आदर्शों को जीवन में उतारना तथा किसी भी क्षेत्र में लिए गये प्रशिक्षण के उपरान्त उस ज्ञान, अनुभव और कौशल का प्रचार –प्रसार एवं आदान-प्रदान व्यक्ति, समुदाय, समाज तथा राष्ट्र के हित में किया जाना |

ऐसी ही सोच शायद राजनेताओं तथा शिक्षाविदों के साथ-साथ नीति-निर्माताओं के मन-मस्तिष्क में भी रही होगी जिसके तहत निर्णय लिया गया कि, शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ाया गया पहला कदम साक्षरता की प्राप्ति होना चाहिए, तदुपरांत वैश्विक मापदंडों के अनुरूप शिक्षा में गुणवत्ता के लक्ष्य को प्राप्त करना सरल होगा | पूर्ण साक्षरता लाने के लिए योजनाओं का निर्माण करते समय हमने संवेदनशील मानवता का परिचय दिया | सबसे पहले व्यक्ति की प्रथम अनिवार्य आवश्यकता ‘रोटी’ को केंद्र में रखा | कहावतों पर भी दृष्टि डाली गयी होगी“भूखे पेट भजन होए न गोपाला” और ऐसे में ‘मिड डे मील’ योजना आरम्भ कर दी |

मिड डे मील योजना में गरीब-अमीर , वर्ण, वर्ग ,जाति ,धर्म, समुदाय और विभिन्न स्तरों की सीमाओं से ऊपर उठकर विद्यालयों में आने वाले प्रत्येक बालक-बालिका को नि:शुल्क भोजन दिए जाने का प्रावधान किया गया | योजना की दूरगामी उपलब्धियों की प्राप्ति जैसे -कुपोषण, भुखमरी, बाल-मजदूरी एवं बाल-शोषण जैसी अनेक समस्याओं के समाधान का स्वप्न भी साकार होगा, ऐसी संभावनाएं देखी गयी | योजना एवं उद्देश्यों में कही भी त्रुटि नजर नहीं आती, लेकिन ‘मिड डे मील ’ योजना का हश्र ‘रोटी के अभाव में नहीं बल्कि रोटी खाने से बाल-मृत्यु’ के रूप में निकलकर आएगा, ऐसा किसी ने सोचा नहीं होगा | ज़मीनी सच्चाई तो यही है कि इस योजना का लाभ हम गरीब और असमर्थ तबके को देना चाहते थे, रोटी की आपूर्ति के प्रयास में लगे अभिभावकों को आश्वस्त किया गया था कि यदि आप अपने बच्चों को शिक्षालयों में भेजते है तो भोजन की व्यवस्था के दायित्व का निर्वहन सरकार करेगी |

हमारी नीतियों पर भरोसा करके एक विशाल जनसमुदाय ने अपने जिगर के टुकड़ों को स्कूल भेजना प्रारम्भ कर दिया | आश्वासन अनुरूप उन्हें भोजन तो दिया गया, लेकिन उसकी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी जिनके हाथों में सौंपी गयी, वे असंवेदनशील ही नहीं बल्कि अमानवीय दृष्टिकोण रखने वाले विकृत मानसिकता से ग्रसित धन-लोलुप्त दुराचारी निकले | उन्होंने सोचा होगा कि यदि गरीब और असमर्थ भारतीय जनमानस घास-फूस के साथ कंकड़-पत्थर पचा लेने की पाचन शक्ति रखता है तो फिर छिपकली ,चूहे , मेंढक ,कॉकरोच और कीड़े-मकौडों से परहेज़ कैसा ! एक के बाद एक दिल दहला देने वाले समाचार देख-सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं | दोष किसे दिया जाए ? नीति-निर्माताओं को, सरकारों को, मिड डे मील योजना से जुड़े अधिकारियों को या फिर उन माता-पिताओं को जिन्होंने पेट की आग और रोटी की आस में अपने बच्चों को मौत के सौदागरों को सौंप दिया!

चर्चा करने जैसा शेष मेरे दृष्टिकोण में कुछ भी नहीं बचा है | एक ही विकल्प समाधान स्वरुप दिखाई देता है कि विद्यालय के प्रांगन में ही भोजन को तैयार करवाया जाए, उसे बनाने की ज़िम्मेदारी उसी विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थियों के अभिभावकों को रोज़गार स्वरुप सौंपी जाए | भोजन बनने के उपरान्त बनाने वाले पहले उसे खाएं और बाद में उसका वितरण विद्यार्थियों में किया जाए | इस सुझाव पर अधिक विचार-विमर्श एवं चर्चा किये जाने की आवश्यकता केवल उन लोगों को महसूस होगी जिनका निजी स्वार्थ मिड डे मील योजना से जुड़ा है | अभिभावकों एवं शिक्षाविदों के अतिरिक्त इस सुझाव के समर्थन में समस्त शिक्षक समुदाय मेरे साथ खड़ा होगा, क्योंकि शिक्षकों को उनके मूल दायित्व ‘ज्ञान के प्रचार-प्रसार’ को पूरा करने का अवसर भोजन वितरण इत्यादि कार्यों से निवृत्त होने के बाद ही मिलेगा |