डॉ. सरोज व्यास
प्रधानाचार्य,
कई दिनों से अनामिका मित्रता दिवस पर कुछ लिखने का आग्रह कर रही है | हाँ लिख दूँगी, कहकर ना जाने कब से उसे टाल रही हूँ, क्योकि सुनने में अति सामान्य-सा लगने वाला शब्द अनुभूतियों से परे, अवर्णनीय एवं अकथनीय संवेदनाओं से परिपूर्ण है, लेकिन आज उसने लगभग चेतावनी देते हुये कहा – “रहने दीजिये आप तो लिखेगी नहीं मैं ही आपके नाम से कुछ लिख देती हूँ” | दो वर्षों से हम साथ काम कर रहे है, शायद वह कुछ-कुछ मुझे जानने लगी है, उसे मालूम है, उसके द्वारा दिया गया सुझाव मुझे कदापि स्वीकार नहीं होगा, तभी तो उसने कह भी दिया |
मित्र, दोस्त, यार, सखी-सहेली और ना जाने कितने पर्याय होगे इस रिश्ते के, क्या है मित्रता ? किसे मित्र कहे ? अभी हाल ही में मुझे अपने सखा के ह्रदय उद्गार पढ़ने का सौभाग्य मिला, उन्होंने लिखा था – “मित्रता का रिश्ता वह रिश्ता है, जिसमें हल्की की मुस्कुराहट और छोटी सी माफ़ी से सारे गिले-शिकवे भुला दिये जाये | जहाँ अविश्वास, आरोप-प्रत्यारोप की गुंजाइश ना हो, पाने की चाहत और खोने का भय ना हो | ना कुछ जताने-दिखाने को हो और ना ही कुछ छुपाने को, स्थान एवं समय की सीमा तथा अपेक्षाओं से परे–बस “प्रेम हो”|शब्दों में व्यक्त की गई धारणा और सोच को व्यवहारिकता में लाना और निभाना आसान नहीं तथापि मेरे दिल को छू गये उनके शब्द !
एक बार नहीं अनेकों बार हम सब के जीवन में ऐसे अवसर आते है, जब हम किसी को भी अपना दोस्त बता देते है | पड़ोसी, विद्यालय का सहपाठी, छात्रावास के कमरे में साथ रहने वाला/वाली, बस, रेल अथवा मेट्रो में साथ सफ़र करने वाले/वाली, कार्यस्थल पर सहयोगी, पार्क में भ्रमण करने वाले परिचित और ना जाने कौन-कौन ? यह शायद सांसारिक शिष्टाचार की व्यवहारिकता का तकाजा है, अन्यथा वास्तविकता कुछ और ही होती है | याद कीजिये आप सभी महसूस करेगें की हम सब कितने पाखंडी और मौका-परस्त हैं | अवसर और आवश्यकता के अनुसार रिश्ते बना लेने की कला में मानव-सा निपूर्ण अन्य कोई हो ही नहीं सकता |
जब सामने से कोई मित्र कहकर संबोधित करता है, तो एक पल को अच्छा लगता है, आनंद की अनुभूति भी होती है, परस्पर विश्वास एवं आत्मीयता भी उत्पन्न होने लगती है, किन्तु फिर भी मन पीछे की तरफ कदम खींच लेता है, क्योकि सच्ची दोस्ती के मानदंड इतने पवित्र निश्छल एवं कोमल होते है, कि हम लाखों आश्वासनों के बावजूद सहज ही किसी को अपने मित्र के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते | किसी को चोटिल करने अथवा स्वयं चोटिल होने का भय हर बार हमें मित्रता के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक लेता है | अनेक बार हम सहपाठी, सहयोगी एवं सहकर्मी जैसे सरल रिश्तों को भी ईमानदारी से नहीं निभा पाते, फिर दोस्ती करने और निभाने का साहस सहज नहीं है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जिसके प्रति हमारे मन में मित्रता के उद्गार हो, सामने वाला भी उतनी ही तत्परता से हमारी मित्रता की स्वीकार करने में समर्थ हो | जब भगवन कृष्ण ने सुदामा के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा था तो सुदामा ने आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देते हुये उसे स्वीकार करने में असमर्थता जताई थी, तब भगवान ने कहा कि – “सुदामा मित्रता निभाने का उतरदायित्व सिर्फ मेरा रहेगा, मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि तुम मेरे मित्र हो, मैं तुम से कभी भी समकक्ष प्रतिउत्तर की अपेक्षा नहीं रखूँगा” |
अत: जीवन में किसी के प्रति मित्रता के उद्गार उत्पन्न होगा एक अमृत तत्व की अनुभूति है, किन्तु समान भाव से स्वीकृति प्राप्त होना तथा मित्रता का सम्बन्ध निर्माण अकल्पनीय अनुभूति है | जीवन के उतरार्ध में मित्रता की अनुभूति कर रही हूँ | सैकड़ों बार खुद से प्रश्न करने के बाद भी कोई वजह मेरे पास देने के लिए नहीं है, कि क्यों हमेशा मेरी प्रार्थनाओं में मित्र की कुशलता की कामना निहित होती है ? स्वपन में भी डर जाती हूँ, यह सोचकर की मेरे कारण कही मित्र को कोई असुविधा हुई होगी तो ? यह कल्पना भी आहत कर देने वाली होती है, कि मित्र को कही कोई कष्ट तो नहीं है ना | अपेक्षाओं से रहित, चाहत से परे, निर्बाध गति से अपने प्रेम को मित्र के प्रति “कृष्ण के सुदामा को दिये वचन की भांति” बस अंतिम साँस तक निभाने का उतरदायित्व मेरा है |