प्रधानाचार्य,
इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली
“महिला दिवस पर महिलाओं के लिए कुछ लिखना चाहिये आपको”, यह शब्द किसी पुरुष मित्र ने कहे होते तो सुनकर कदापि आश्चर्य नहीं होता किन्तु अपनी ही सहयोगी के मुखारविंद ने उद्धत इस वाक्य ने मुझे झकझोर कर रख दिया | महिला दिवस पर महिलाओं के विषय में कुछ” लिखा जाना, कैसे संभव हो सकता है ? हाँ यदि इसका अर्थ अथवा परिभाषा लिखने का अनुरोध किया गया होता तो मैं अवश्य शब्दों का जाल बुनकर स्वयं एवं समस्त नारी जाति को महिमा-मंडित करने का दु:साहस कर बैठती |
सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक, पुरुषत्व को सार्थक करती धरा रूपी जननी की व्याख्या किया जाना मेरे सामर्थ्य से परे है | भारतीय परिपेक्ष्य मेँ यदि लेखन का सीमांकन किया जाना हो तो “असंभव” शब्द का प्रयोग किया जाना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा | प्रारब्ध से वर्तमान तक इतिहास की घटनाओं पर दृष्टिपात करना यहाँ नितांत अनिवार्य प्रतीत होता है, क्योंकि भविष्य की योजनाओं की आधारशिला इतिहास के पन्नों पर टिकी है | इतिहास प्रारब्ध है और वर्तमान उसकी परिणिति, भविष्य मात्र योजनाओं का प्रारूप है ऐसे में संभावनाओं को यथार्थ समझ लेने की भूल करना मूर्खता होगी |
यद्यपि मैं जानती हूँ, कि मेरे लिखने से समाज के लोगों की मानसिक सोच, सत्ताधारी शासकों के आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण तथा महिलाओं की “दशा एवं दिशा” में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होने वाला तथापि विचारों को मूर्त रूप देने की लालसा पर विराम लगाने में विफल हो रही हूँ | वर्तमान में मनाएं जाने वाले महिला दिवस का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं हैं, मात्र 106 वर्ष की आयु लिये यह दिवस विश्व-पटल पर अपनी गौरव गाथा से अभिभूत है | विकिपीडिया के अनुसार अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर, सबसे पहले महिला दिवस 28 फ़रवरी 1909 में मनाया गया । तत्पश्चात यह फरवरी के अंतिम रविवार के दिन मनाया जाने लगा । 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल कोपनहेगन के सम्मेलन में इसे अंतर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया । उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था, क्योंकि तब तक अधिकांश देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था । कालांतर में सम्पूर्ण विश्व में 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा | भारतीय संस्कृति “वसुधैव कुटुम्बकम” की विचारधारा से ओतप्रोत है, अत: भारतियों ने भी इस तिथि का स्वागत महिलाओं को सम्मान देने की मंशा से भुजाएं फैलाकर औपचारिक रूप से स्वीकार किया |
आकाश में विद्यमान असंख्य तारामंडल की भाँति पृथ्वी पर भी “इतिहास के पन्नों, वर्तमान की गोद और भविष्य के गर्भ” में अनगिनत उदाहरणीय महिलाओं का अस्तित्व समाहित है | जननी(माँ), भगिनी(बहन), प्रियसी(प्रेमिका), भार्या(पत्नी) और सुता(पुत्री) के धैर्य, सामर्थ्य, त्याग, ममता एवं वात्सलय पर पुरुष को कभी संदेह नहीं रहा | पुरुष नारी शक्ति के समक्ष कल भी आभारी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि वह जननी है, पुरुष को पिता, भाई, प्रेमी, पति और पुत्र होने का गौरव उसी से प्राप्त है | वंशानुक्रम परम्परा भले ही पुरुष के नाम से चले लेकिन वारिस की जन्मदात्री सदैव महिला ही रहेगी | वर्तमान में विज्ञान एवं तकनीकी ने भी इस अटल सत्य को प्रमाणित कर दिया कि धन एवं संसाधनों की उपलब्धता के उपरांत भी “किराये की कोख” का एकाधिकार मात्र महिला को है |
समानता के अधिकार की लड़ाई भी मेरे दृष्टिकोण से निर्मूल और निरर्थक है, क्योंकि समानता समकक्षता पर आधारित होनी चाहिए | उदाहरणार्थ – यदि “आलू एवं मूली हठ करने लगे कि हमें भी खजूर एवं नारियल की भांति जमीन के ऊपर हरे-भरे वृक्षों पर लटकना है, या फिर पुरुष कहे कि उसे गर्भ धारण करना है, कितना हास्यप्रद होगा” | विचारणीय मुद्दा है, क्या यह सब संभव है ? किसी भी युग में प्रकृति प्रदत भौगोलिक, शारीरिक एवं मानसिक भिन्नताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता है | अधिकार एवं कर्तव्य भले ही हमने संविधान में वर्णित कर दिये हो तथापि इनका अनुपालन मनुष्य के विवेक(बुद्धि), क्षमता(शारीरिक, आर्थिक एवं राजनैतिक) और अवसर के अनुरूप ही होता है | अधिकारों और समानता के लिए चीखने-चिल्लाने से पूर्व सभ्यता और संस्कृति के मूल स्वरूप का गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है | सभ्यता की नींव भौतिक संसाधनों, विकास, प्रगति एवं वैश्वीकरण पर टिकी है, इसके विपरीत संस्कृति की जड़ों में सभ्य समाज की आत्मा समाहित होती है, जहाँ पर अभौतिक मूल्यों (परम्परा, प्रेम, समर्पण, दया, सहयोग, सहभागिता एवं त्याग) को सर्वोपरि रखा जाता है | वैसे भी अधिकार एवं समानता का भाव मनुष्य की आत्मजनित प्रकृति, स्वानुभूति तथा मानवता पर आधारित सोच पर निर्भर करती है | सभ्यता विकास एवं प्रगति का प्रतीक है, वही दूसरी ओर संस्कृति मूल्यों एवं परम्पराओं का निर्वाह करना, अत: चर्चा का विषय अधिकार तथा समानता की अपेक्षा पुरुष एवं महिला का एक-दूसरे को परस्पर सम्मान, साथ और सहयोग दिया जाना होना चाहिए |
मध्यम-वर्गीय सामाजिक प्राणी, शैक्षिक पृष्ठभूमि, तार्किक दृष्टिकोण एवं सकारात्मक वातावरण से अर्जित वर्षों के अनुभव उपरांत विकसित सोच के परिणाम स्वरूप यह कहने का साहस कर रही हूँ कि -महिला एवं पुरुष वर्ग के बीच उत्पन्न टकराव के कारण हो सकते है ……
* राजनैतिक एवं आर्थिक महत्वाकांक्षा के कारण शिक्षा से अधिक साक्षरता का चलन |
* फिल्म एवं धारावाहिक नाटकों में दिखाये जाने वाले दृश्यों का नकारात्मक प्रभाव |
* विकास एवं प्रगति के नाम पर संस्कृति से अधिक सभ्यता पर बल दिया जाना |
* वैश्वीकरण के युग में भौतिकवाद के प्रति रुझान एवं आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण |
* पारिवारिक विघटन (संयुक्त की अपेक्षा एकल परिवारों का बढ़ता प्रचलन) |
* आध्यात्मिक मनोवृति का अभाव एवं असंतोष जनित कुंठित मानसिकता |
* पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण (मूल्यों एवं परम्पराओं की अवहेलना) |
* महनगरीय वातावरण में समायोजन एवं सामंजस्य स्थापन की समस्या |
* विज्ञान एवं तकनीकी संसाधनों का अति-प्रयोग तथा बढ़ता दुरुपयोग |
* महिलाओं का महिलाओं से अनपेक्षित अतार्किक आंतरिक टकराव |
महिला अथवा पुरुष को सम्मान देने के लिए किसी एक दिन को निर्धारित करके आयोजन किया जाना सही या गलत नहीं, लेकिन यह भी असंभव नहीं कि हम प्रतिदिन मानवता दिवस की अनुभूति से अभिभूत होकर सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ “वसुधैव कुटुम्बकम” को चरितार्थ करें और महिला एवं पुरुषों से संबन्धित विषयों पर निरंतर लिखते रहें |