स्वयं को पहचाने युवा

सिद्धेश राय

स्वतंत्रता दिवस, बाल दिवस, शिक्षा दिवस, महिला दिवस आदि…आदि की तरह ही आज़ यानि 12 जनवरी 2013 युवा दिवस की तरह मनाया जाता है। सोचता हूं इस विषय पर कुछ सोचूं, कुछ मंथन करूं फिर कुछ लिखूं। सोचता हूं थोड़ा मानक से हटकर लिखूं। मेरी मजबूरी भी है क्योंकि मेरे पास अभी कोई डाटा या इनसाइक्लोपिडीया नहीं कि जिससे मैं देश की तरक्की में युवाओं की प्रतिशतता बता सकूं इसलिए अपनी छोटी बुद्धि से थोड़ा-सा सोच-समझकर लिख रहा हूं। हमारे देश के युवा गांवों, शहरों और महानगरों में रहकर परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपना योगदान दे रहे हैं। चाहे गति धीमी हो अथवा तेज़।

आज़कल देश की राजनीति में युवाओं की मांग बढ़ रही है, उनकी सहभागिता महसूस की जा रही है। वास्तव में यह एक तत्कालिक घटना जैसी ही लगती है। जिस देश की सरकार व राजनीति को हमारे बुर्जुआ वर्ग चलाते रहे हैं, जिन्होंने युवाओं की मानकता को कभी स्वीकार नहीं किया है फिर आज़ अचानक राजनीति में इनकी ज़रूरत का भाव समझ नहीं आता। जीवन के कई क्षेत्रों जैसे उद्योग, व्यापार, कृषि, तकनीकी व विकास के अन्य सीधे क्षेत्रों में युवाओं की मांग क्यों नहीं महसूस की गई? यहां भी तो उनकी सहभागिता देश के हित में थी। वास्तविक चितंन करने पर देश के युवाओं के लिए इतना तो जान लेना सहज है कि कुछ वंश परम्परा वाले चमकदार युवा चेहरे को प्रतिनिधित्व देकर उन्हें उल्लू नहीं बनाया जा सकता। उदाहरण के लिए माननीय पीके संगमा की सुपुत्री, सोनिया जी के पुत्र, स्व. पायलट साहब के पुत्र, स्व. सिंधिया जी के राजकुमार, मेनका जी के सुपुत्र, मुलायम जी के सुपुत्र आदि कुछ भाग्यशाली युवक-युवतियां हैं जिन्हें देश के समस्त युवाओं का प्रतिनिधित्व करने का गौरव प्राप्त है। आज़ युवाओं के लिए सोचना ज़रूरी हो गया है कि चंद युवाओं को महज वंशानुगत आधार पर प्रतिनिधित्व से देश के करोड़ों युवाओं का भला नहीं हो सकता।

बताना चाहूंगा कि मैं ग्रामीण क्षेत्र से आकर महानगर में जीवनयापन कर रहा हूं शायद इसलिए समस्त भारतीय युवाओं की परिस्थिति एवं परिवेश को समझ सकता हूं। देश का कितना भी आधुनिकरण हुआ हो फिर भी भारत को गांवों का देश कहा जाता है, जहां कि लगभग 80 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है जिनमें करोड़ों युवा भी हैं जिन्हें सभी ज़रूरी शैक्षणिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि उन्हें रोजग़ार तथा संतुलित भोजन भी उपलब्ध नहीं है। वो कहीं न कहीं शैक्षणिक व शारीरिक रूप से कुपोषित हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वे भी भारत के युवा हैं। उनके शक्तिशाली होने से ही देश शक्तिशाली होगा और उनके कमज़ोर हो जाने से देश कमज़ोर। उनके शिक्षित होने से देश शिक्षित व अशिक्षित होने से देश अशिक्षित। हमें समझना होगा कि करोड़ों संघर्षशील युवा ही हमारे देश की नींव हैं।

मुझे एक वाक्या याद आ रहा है। एक बड़े भाई कह रहे थे कि सन् 1974 की घटना है। इंग्लैण्ड में एक बूढ़ी औरत विद्यालय में बच्चों को दूध देने का काम करती थी। एक दिन व चिंतित थी। उन्हें देख उनके एक किराएदार ने पूछा कि ‘‘आप क्यों चिंतित है?’’ उसने उत्तर दिया कि ‘‘आज़ 20 लीटर दूध ही आया है जबकि बच्चों को 30 लीटर चाहिए। कैसे करूं?’’ इसपर किराएदार ने कहा ‘‘बहुत ही आसान है, 10 लीटर पानी मिला दो 30 हो जाएंगे बस।’’ उसकी बात को सुनकर बूढ़ी महिला क्रोधित हो बोली ‘‘मेरा मकान अभी खाली कर दो।’’ इसपर किराएदार ने आश्चर्यचकित हो पूछा ‘‘मैंने तो अच्छी बात बताई। मेरी ग़लती क्या है?’’ तब बूढ़ी औरत ने कहा ‘‘तुम मेरे देश के दुश्मन हो, तुम चाहते हो कि मेरे देश के युवा कमज़ोर हो जाए ताकि मेरा देश कमज़ोर हो जाए। तुम तुरंत मेरी नज़रों दूर हो जाओ।’’ धन्य थी वो बूढ़ी, वो देशभर की मां जो युवाओं की शक्ति को पहचानती थी।

वास्तव में युवा ही हमारे देश की शक्ति हैं। हमारा देश उन्हीं के कंधों पर है। विभिन्न क्षेत्रों में चाहे वो खेल हो, उद्योग हो, शिक्षा हो, प्रौद्योगिकी या फिर कृषि सब तरफ युवाओं की सक्रियता है। ज़रूरत है उन्हें स्वामी विवेकानंद जैसे महान युगपुरुष से आध्यात्म, बंधुत्व व एकता का संदेश लेते हुए सदा राष्ट्रहित को सोचना और उन्हें हमेशा असामाजिक व स्वार्थी तत्त्वों से देश को बचाए रखना है।