आर.डी. भारद्वाज “नूरपुरी “
यह एक सर्वविधित सत्य है कि महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5200 वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में हुआ था । इस युद्ध के मात्र दो ही कारण थे, एक तो यह कि हस्तिनापुर के दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र के बाद उसकाउत्तराधिकारी कौन होगा, क्योंकि धृतराष्ट्र के सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन तो अपना हठ त्यागने को हरगिज़ तैयार नहीं था और वैसे उस वक़्त के प्रचलित नियमों व रिवाज़ों के हिसाब से सबसे बड़ा पाण्डु पुत्रयुधिष्ठर को दुर्योधन से बड़ा होने के कारण उत्तराधिकारी बनने का सौभाग्य प्राप्त होना चाहिए था, और दूसरा – जुये में कौरवों के हाथों हुई इतनी बड़ी शर्मनाक हार और उसके पश्चात दुशासन द्वारा भरीसभा में द्रौपदी के चीरहरण से उत्पन्न हुई इतनी बड़ी लज्जापूर्ण त्रासदी , जिसमें सभी पांडवों के हुए शारीरक और मानसिक उत्पीड़न और अपमान का बदला तो केवल और केवल युद्ध से ही लिया जासकता था। शोधानुसार, जब महाभारत का युद्ध हुआ, तब श्रीकृष्ण की आयु तकरीबन 83 वर्ष थी और इस युद्ध के 36 वर्ष बाद उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया था । विद्वान लोग यह भी मानते हैंकि इस यद्ध के बाद ही कलियुग का आरंभ हुआ था ।
महाभारत का यह युद्ध 18 दिनों तक चला था। इस युद्ध के प्रारंभ होने पहले दोनों पक्षों के वरिष्ठ सदस्यों ने बैठकर इसके कुच्छ नियम बनाए थे – जैसे कि प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक हीरहेगा, सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होगा, युद्ध समाप्ति के पश्चात सब प्रकार के छल-कपट छोड़कर सभी लोग प्रेम का व्यवहार करेंगे, रथी रथी से, हाथी वाला हाथी वाले से, घुड़सवार – घुड़सवार से ही औरपैदल पैदल से ही युद्ध करेगा, एक वीर के साथ एक ही वीर युद्ध करेगा, भय से अपनी जान बचाकर भागते हुए या शरण में आए हुए लोगों पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं किया जाएगा, जो वीर निहत्था होजाएगा उस पर कोई अस्त्र नहीं उठाया जाएगा, युद्ध में सेवक का काम करने वालों पर / युद्ध में घायलों को उठाकर इलाज़ के लिए ले जाने वालों पर भी कोई अस्त्र शाश्त्र नहीं उठाएगा, इत्यदि ।
यूँ तो उस वक़्त के इस सबसे भयानक युद्ध के अनेकों ही दिलचस्प किस्से और पात्र हैं, मगर इस लेख द्वारा कौरव पुत्रों के बारे में एक रोचक तथ्य पर ही विचार करेंगे । धृतराष्ट्र के पुत्रों का जब भी जिक्रआता है तो ऐसा ही कहा और लिखा जाता है कि उसके सौ पुत्र थे । लेकिन यह एक अधूरी सच्चाई है , दरअसल राजा धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र और एक मात्र पुत्री दुशाला थी । उसके एक सौ एकवें पुत्र -युयुत्सु का नाम अक्सर लोग भूल ही जाते हैं , शायद इस लिए कि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने उसको जन्म नहीं दिया था ।
इसका कारण : धृतराष्ट्र और पाण्डु भाईओं में से धृतराष्ट्र बड़ा था , समय आने पर उसका विवाह गांधार के राजा सौभाली की पुत्री गांधारी से रचा दिया गया था और पाण्डु की शादी राजा कुन्तिभोज कीपुत्री कुंती से हो गई थी । कुदरत की करनी कुच्छ ऐसी हुई कि धृतराष्ट्र की शादी के दो वर्ष पश्चात भी उनके घर कोई सन्तान नहीं हुई, जबकि पाण्डु की पत्नी कुंती ने अपने बड़े बेटे युधिष्ठर को जन्म देदिया था । इसी बीच , धृतराष्ट्र को एक सुखद समाचार मिला कि उसकी पत्नी गांधारी भी गर्भवती हो चुकी है । गांधारी के गर्भकाल के दौरान राजा धृतराष्ट्र की व्यक्तिगत आवश्यकतायों को पूरा करने केलिए सैवाली नाम की एक दासी को नियुक्त किया गया । और यह बात भी जगजाहिर है कि राजा महाराजायों और मंत्रियों की दासियाँ या सेविकाएँ केवल नौकरानियाँ ही नहीं होती थी, उनका असली दर्जाऔर रिश्ता अपने स्वामी की इच्छानुसार ही बनता / बिगड़ता रहता था ।तो ऐसे धृतराष्ट्र की यह दासी सैवाली (कुछ इतिहासकार इसका नाम सुगधा भी बताते हैं) का सम्बन्ध धृतराष्ट्र से दासी से कुछ ज्यादा ही था । और जब गांधारी ने अपने बड़े बेटे दुर्योधन को जन्म दिया तोउसके कुच्छ समय बाद दासी सैवाली ने भी एक बेटे को जन्म दिया, और धृतराष्ट्र के इस पुत्र का नाम युयुत्सु रखा गया । युयुत्सु दुर्योधन से तो छोटा था, लेकिन अपने बाकी कौरव भाईओं से बड़ा था । जैसे२ कौरवों के बच्चे बड़े होते गए और दुर्योधन और उसके भाईओं को युयुत्सु और उसकी माता के बारे में और जानकारी मिलती गई, उनका विवहार और बर्ताव युयुत्सु के साथ प्यार मोहब्बत का ना होकरथोड़ी नफ़रत, कड़वाहट और भेदभाव वाला ही बनता चला गया । दरअसल, बाकी कौरव भाई उसका उसी तरह निरादर करते रहते थे जैसे करण की जिन्दगी में उसके जन्म सम्बंधी रहस्य खुलने से पहलेपाण्डु पुत्र करण को “सूद्पुत्र २” बोलकर उसका अपमान किया करते थे । (वैसे, एक सारथी अधिरथ और उसकी पत्नी राधा करण के पालक माता पिता थे) यही कारण था कि युयुत्सु भी बाकी अपने सौकौरव भाईओं के साथ अक्सर परेशान ही रहता था और उनके बीच का यह फासला समय के साथ चलते २ बढ़ता ही चला गया , जबकि इसके बिलकुल विपरीत, पांडव भाईओं ने उसके साथ कभी कोईभेदभाव वाला रिश्ता नहीं निभाया ।
कौरव भाईओं में युयुत्सु का स्थान लगभग वैसा ही था जैसा कि रावण के दरबार में विभीषण का था । यह बात और है कि करण सूदपुत्र होने के बावजूद भी कौरवों का चहेता बन गया था, क्योंकि – दुर्योधनको उस वक़्त के सब से बड़े धनुर्धर -अर्जुन का मुक़ाबला करने के लिए एक ऐसा बहादुर योद्धा चाहिए था जोकि उसको पराजित कर सके और जो युद्ध होने की स्थिति में दुर्योधन की जीत सुनिश्चित कर सके। केवल और केवल इसी वजह से ही दुर्योधन ने करण को एक सूद्पुत्र होने के बावजूद भी केवल उसे अपना पर्म मित्र ही नहीं बनाया, बल्कि अपने हिस्से का इलाका – अँग प्रदेश (आजकल के हरियाणा में -करनाल) भी उसे देकर, करण को वहाँ का राजा नियुक्त कर दिया था, जोकि एक तरह का एक गूड़ा राजनितिक छड़यन्त्र या फिर चाल मानी जा सकती है, क्योंकि आने वाले वक़्त में दुर्योधन ने करण कोपांडवों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना था ।
युद्ध की समाप्ति के बाद सबसे बड़ा पाण्डु पुत्र युधिष्ठर तो मात्र पन्द्राह वर्ष तक ही सिंहासन पर बिराजमान रहा, क्योंकि वह तो बहुत बार महाभारत युद्ध में मारे गए लाखों वीरों / अपने करीबी व सखेसम्बन्धियों और दोनों पक्षों के लाखों सैनिकों के बारे में सोच २ कर अक्सर परेशान / विचलित हो जाया करता था । क्योंकि लाखों लोगों ने इस इतने भयानक युद्ध की त्रासदी झेली और तीस पैंतीस लाखलोगों को मौत की नीन्द सुला दिया गया | फ़िर, अपनों को खोने का ग़म और असली दर्द तो केवल उनके घरों में शेष बची औरोतों और बच्चों को ही झेलना पड़ता है | एक और बात, प्राण गँवा चुके लोगों काअन्तिम सँस्कार करने के लिए लकड़ियाँ और बाकी सामग्री भी उनको नसीब नहीं हुई थी |
बाद में, जब पांडवों ने अपना राजपाठ त्यागकर , वाणप्रस्थ जाने और अर्जुन के पोत्र परीक्षित को राजगद्दी सौंपने का निर्णय ले लिया, तो उन्होंने युयुत्सु को परीक्षित का मुख्य सलाहकार और संरक्षक नियुक्त कर दिया था । मगर यह बात भी गलत नहीं है कि कौरवों ने युयुत्सु को भी उसी तरह गद्दार माना और जाना था जैसे कि रावण के दरबार में विभीषण को माना जाता था। लेकिन, अगर हम युयुत्सुके जन्म से लेकर बड़े होने तक उसके जीवन में घटित होने वाली अनेकों स्थितियों और प्रस्थितियों की पूरी श्रृंखला पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें कि तथाकथित अपनों के बीच रहते हुए भी यहाँ आपकीसोच और धारणा को दूसरे हमेशा नकारते ही रहे हों , कोई आपको इज्जत, मान – सम्मान ना दे और और वक़्त – बेवक़्त आपके भाई आपको नीचा दिखाने में ही लगे रहें , तो ऐसी निन्दा और अपमान केघूँट पीकर कोई कितने दिन उनका साथ निभा पाएगा ? आत्म-सम्मान किसी भी तर्कशील / संवेदनशील व्यक्ति की एक ऐसी पूँजी होती है जिसे वह किसी भी कीमत पर गँवाना या खोना नहीं चाहता । सोऐसे में युयुत्सु द्वारा कौरवों का ख़ेमा हमेशा के लिए छोड़ना, वोह भी तब , जब उसके अपने खानदान के बड़े बजुर्गों ने ही इसके लिए युद्ध शुरू होने से पहले ही उसके समेत सभी योद्धाओं को एक विकल्पदिया हो , तो ऐसे फ़ैसले को गलत मानना कोई उचित और तर्कसंगित विश्लेषण नहीं कहा सकता । हकीकत में, युयुत्सु भी उसी तरह अच्छा, संवेदनशील, बुद्धिमान , विवेकशील और प्रगतिशील व्यक्ति था,जैसे कि रावण का छोटा भाई विभीषण !