कैसे पहचानें बनावटी गुरुओं को ?


गीता 

जो अज्ञानरुपी अन्धकार को मिटा दे, उसी का नाम गुरु है. गुरु की महिमा भगवान से भी अधिक कही गयी हैं. लेकिन आज कल सच्चे गुरु और सच्ची गुरु महिमा के दर्शन विरले ही होतें हैं. अब तो गुरू – महिमा के नाम पर गुरुओं द्वारा प्रदर्शित दंभ-पाखंड, स्वार्थ, आडंबर, मान -बड़ाई की इच्छा , स्वयं को ईश्वर घोषित करना, देश – विदेश में प्रसिद्धि की लालसा, आर्थिक – लाभ और शिष्यों की भीड़ जुटाना इत्यादि तथ्यों के ही दर्शन होतें हैं.

आजकल सच्चे गुरुओं का अकाल पड़ा हुआ हैं. हर गली-कुचे में तरह – तरह के गुरुओं के आश्रम, धर्मिक संगठन, मठ आदि के दर्शन होतें हैं, ऐसे में किसे गुरु के रूप में धारण करना चाहिए ? कौन पूर्ण, प्रमाणिक और सच्चा हैं ? यह सवाल निरंतर उठता ही रहता हैं.


पानी पीजे छान के, गुरु कीजे जान के !!!!

आध्यात्मिक स्वास्थ्य हेतु गुरु भी जाँच -परख कर ही धारण करना चाहिए. निम्न कुछ कसौटियों पर कस कर बनावटी गुरुओं को पहचाना जा सकता हैं.

बाह्य-रूप:
अधिकतर भोले -भाले शिष्य, गुरुओं के बाह्य-रूप के झांसे में आ जातें हैं. सन्यासी-वेशभूषा, सफ़ेद-लाल-गेरुवा चोला, तिलक, रुद्राक्ष, जप-माला, अन्य अलंकार से, चेहरे की चमक और लालिमा से साधारण मानव – मस्तिष्क शीघ्रता से प्रभावित हो जाता हैं. साधू-सन्यासी का वेश धर कर कुछ बनावटी गुरुओं की मंशा केवल ठगी करने की ही होती हैं.

एक आत्म – जागृत गुरु किसी भी परिधान या रंग को धारण कर सकता हैं वो चाहे नीला, काला,गुलाबी,या हरे रंग का साधारण कुर्ता-पजामा, पेंट -शर्ट या ओवरकोट हो. उसका संतत्व वेशभूषा पर आधारित नहीं होता हैं और न ही चहरे की नुरानी चमक पर.

वाक्पटुता या मधुर व्याख्यान :
अधिकतर बनावटी गुरु लच्छेदार वाणी, वाक्पटुता, शब्द-चातुर्य और चुम्बकीय कथा – वाचन शैली का प्रयोग कर शिष्यों को ठगते हैं. ऐसे गुरु अनेक काल्पनिक प्रमाण और तर्कों द्वारा अपने को सर्वश्रेठ, ईश्वरीय -प्रतिनिधि, उद्धारक और विश्व का एक मात्र सदगुरु घोषित करतें हैं. ऐसे बनावटी गुरु आप को विश्वास दिलायेंगें की केवल वे ही आप के उद्धारक है और केवल उन्हीं के शरण में जाने से आप के समस्त भौतिक, मानसिक और अध्यात्मिक संशयों का निराकरण हो सकता हैं. अपने तर्कजाल द्वारा आपके द्वारा की हुई शंका को भी वे ईश्वरीय- सत्ता के प्रति बगावत घोषित कर देंगें. लेकिन एक सच्चे गुरु की वाणी साधारण, सहज, और कभी कभी अल्हड भी हो सकती है. उनकी साधारण सी लगने वाली भाषा भी गूढ़ -रहस्यों से औत-प्रोत होती हैं . उन्हें किसी की भी गरज़ नहीं होती हैं और न ही उनमें गुरु बनने की कोई इच्छा ही होती हैं.

भीड़ का सिद्धांत :
कुछ बनावटी गुरु शिष्यों की भीड़ या जमात इक्कठी करने में उस्ताद होते हैं. जितनी बड़ी शिष्यों की फौज़ होगी उतना ही वो गुरु सामाजिक सम्मान और प्रभाव का अधिकारी होगा. लोगों का सोचना होता हैं कुछ तो होगा उस गुरु में ? तभी तो इतने लोग उनके पीछे पागल हुए जा रहें हैं. और वे भी अपने विवेक को ताक पर रख कर उस भेड़-चाल में शामिल हो जाते हैं. अक्सर ये बनावटी गुरु मार्केटिंग की विधा में निष्णात होते हैं. प्रचार – प्रसार कर अपने शिष्यों की संख्या में बढोतरी करना ही इनका मकसद होता हैं. सदगुरु स्वयं असली शिष्यों या पात्रों को खोजतें हैं. सामूहिक रूप से चेले बनाने में वे उत्सुक नहीं होते हैं.

चमत्कार को नमस्कार:
कुछ शिष्य गुरुओं द्वारा प्रदर्शित चमत्कारों से प्रभावित हो कर उन्हें ही सच्चा गुरु मानने लग जाते हैं. ये चमत्कार और रिधियाँ-सिद्धियाँ निम्न कोटि की होती हैं और बनावटी गुरु इनका प्रयोग एक निपुण जादूगर के सामान लोगों को भ्रमित और सम्मोहित करने के लिए  करतें हैं. एक सच्चा-गुरु समर्थवान रहते हुए भी कभी भी अपनी शक्तियों का प्रदर्शन नहीं करता हैं और अध्यात्मिक – पथ पर इन चमत्कारों का निषेध भी करता हैं.

कुंठित बुद्धि द्वारा भ्रमित विवेचना:
अधिकतर प्रभावशाली गुरु अपने शिष्यों की सामान्य – मानसिकता ,सोचने – समझने और तर्क करने की शक्ति को कुंठित कर देते हैं. इन गुरुओं की कथनी और करनी का अन्तर देखते हुए भी शिष्य मूक-बधिर मानसिकता से ग्रसित होकर इनका पाखंड और बनावटीपन झेलते रहते हैं. मीडिया में इनकी फ़जियत होने पर भी इनके शिष्यों का इनपर से भ्रम नहीं टूटता और वे शास्त्र -सम्मत- निष्पक्ष विधि का त्याग कर सदेव अपने पूर्वाग्रहों से युक्त रहतें हैं. सच्चा गुरु एक जिज्ञासु को अंतर्दृष्टि प्रदान करता हैं और उसे आन्तरिक विवेक और अनुभूतियों का अनुगमन करना सिखाता हैं.

अप्रत्यक्ष आचारसहिंता :
अक्सर बनावटी गुरु एक अप्रत्यक्ष आचारसहिंता चलाते हैं और अपने शिष्यों से उसका कड़ाई से पालन भी करवातें हैं.
गुरु के प्रति मस्तिष्क में उठाने वाली प्रत्येक दुविधा और शंका का पूर्ण निषेध.
केवल आन्तरिक-वृत्त को ही उस संगठन की पूर्ण जानकारी.
समस्त शिष्यगन अपने गुरु के सामान एक जैसी वेशभूषा, भाषा, जीवन शैली, लोकाचार का अनुकरण करेंगें.
दूसरे गुरु या संगठन का पूर्ण निषेध या विरोध.
व्यक्ति विशेष या संगठन की गुरु पर आजीवन पूर्ण एकनिष्ठ निर्भरता. किसी भी व्यक्तिनिष्ट मनोभाव को व्यक्त करने की मनाही होती हैं.
गुरु का व्यक्तिगत और सामाजिक आचरण अलग-अलग हो सकता हैं, इससे उसकी गुरुता में कोई अंतर नहीं आता हैं. शिष्यों को भी इस विषय में अपने गुरु पर शंका नहीं करना चहिये.
कभी-कभी शिष्यों को उनके स्वाभाव के विरुद्ध कार्य दे के उनकी गुरु – निष्ठा का परिक्षण किया जाता हैं. तन-मन-धन से शिष्य को केवल गुरु के प्रति समर्पित रहना चाहिए.
शिष्य के जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना, परिस्थिति और उपक्रम का श्रेय केवल गुरु को ही दिया जाता हैं.

एक सच्चा गुरु अपने शिष्यों का उद्धार करने की सामर्थ्य रखता हैं. अपने शिष्य और समाज का कल्याण ही उनकी स्वाभाविक लगन होती हैं. वे स्वयं समर्थ वान होते हैं और अपने शिष्य को भी समर्थवान बनाते हैं. शिष्य को कमज़ोर, दीन-हीन, असमर्थ बना कर वे उसे अपने ऊपर आश्रित नहीं बनाते हैं. परम गुरु वही हैं जो अन्तः स्थित परम तत्व का साक्षात्कार करवा दे.

परम गुरु अहंकार, दावों, गर्व, प्रचार और बहकावों से कोसों दूर रहते हैं. सच्चे गुरु के शारीर, मन और आत्मा एकीकृत होते हैं. अतः उसका व्यक्तित्व स्थिर और शांत होता हैं. अगर कोई गुरु 15 से 30 मिनट के अंदर बार – बार शारीरिक भंगिमाएँ [body postures ] और वक्तव्य की शैली और विषय बदले तो उसके सच्चे गुरु होने की सम्भावना पर पूर्ण शंका करनी चाहिए.