गीता में वर्णित कुछ मणियों को परिभाषित करने का छोटा सा प्रयास मात्र –
भगवन सर्वज्ञता ऐश्वर्ये सोंदर्य माधुर्य आदि जितने भी वैभवशाली गुण हैं वे सब कि सब भगवान् में स्वतः हैं वे गुण भगवान् में नित्य रहते हैं, असीम रहते हैं जैसे पिता का पिता फिर पिता का पिता – यह परंपरा अंत में जाकर परम पिता परमात्मा में स्वप्त होती है, ऐसे ही जितने गुण हैं उन सब कि समाप्ति परमात्मा में ही होती है . भगवान् से पुराना कोई नहीं क्योंकि वे कालातीत हैं.
जीव का भगवान् कि साथ जो नित्य सम्बन्ध है उसका नाम योग है. उस नित्य योग की पहचान कराने कि लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कहे गए हैं. उन योगों के समुदाय का वर्णन गीता में होने से गीता भी योग अर्थात योग शास्त्र है.
संसार एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है. केवल परिवर्तन के समूह का नाम ही संसार है. संसार को क्षण भंगुर (अनित्य) जान कर इससे कभी किंचित मात्र भी सुख की आशा न रखना – यही संसार को यथार्त रूप से जानना है. जीवात्मा संसार के सम्बन्ध से महान दुःख पाटा है और परमात्मा के सम्बद्ध से बहां सुख पाता है.
निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्ति योग कहते हैं. भक्ति मार्ग वाला सर्वत्र अपने प्रभु को देखता है. ज्ञान मार्ग वाला केवल अपने स्वरुप को ही देखता है और कर्म योग वाला अपने सेव्य को ही देखता है. इसलिए साधक किसी की बुराई निंदा व् चुगली आदि कर ही कैसे सकता है.
साधक में सीधा सरल भाव होने चाहिए. सीधा सरल होने के कारण लोग उनको मुर्ख, नासमझ कह सकते हैं पर उससे साधक की कोई हानि नहीं है. अपने उद्धार के लिए यह सरलता बड़े काम की चीज है. जब साधक का एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्मा प्राप्ति का ही हो जाता है तब उसकी कामनाएं दूर होती चली जाती है.
भगवान् को जानने वाले मनुष्य की यह पहचान है कि वह सब प्रकार से स्वतः भगवान का ही भजन करता रहता हैं. आवश्यकता तो केवल है – भगवत प्राप्ति की ऐसी तीव्र अभिलाषा लगन व्याकुलता की है जिसमे भगवत प्राप्ति के बिना रहा न जाए. देर इसी कारण है कि – हममें अभी भगवान् से मिलने की व्याकुलता का अभाव है.
में देह हूँ तथा जगत के विषय पदार्थ मेरे है – यही है अहंता व् ममता जो बंधन का कारण है. इसी के कारण मन इंद्रियों के माध्यम से विषयों की ओर भागने लगता है लेकिन जब यह बोध हो जाता है कि – मैँ नश्वर देह नहीं बल्कि नित्य अमर आत्मा हूँ तथा बाह्य जगत अस्थाई एवं क्षण भंगुर है, तब मन शांत हो जाता है और इन्द्रियां भी सहन ही अंतर्मुखी हो जाती है.
शुभ शुभ सभी वस्तुओं में भगवान् की विद्यमानता को देखने का प्रयत्न करना चाहिए . यह साधना क्ष्रेष्ठतम होते हुए भी सबसे कठिन है. वास्तव में ये बाधाएं संसार में नहीं अपितु मन में हैं. जब मन में ईश्वर प्रेम जागृत होता है तो साड़ी बाधाएं चली जाती हैं.
एक करना होता है और एक होना होता है. दोनों विभाग अलग अलग हैं. करने की चीज कर्त्तव्य और होने की चीज है फल. जैसा प्रारब्ध होता है वैसी बुद्धि बन जाती है. पूर्व कर्मों के अनुसार आने वाली अनुकूल प्रकुल परिस्थिति का नाम सुख सुख है.
सांसारिक मनुष्यों के शरीर तो जड़ होते हैं और उनमें जो शरीरी चेतना होती है वे आप हैं . आप शरीर के मालिक हैं तो क्या हम अपनी सार्थकता कर पाते हैं? हम ही तो शरीर के गुलाम बन जाते हैं. जैसे मकान में रहते हुए भी हम मकान से अलग हैं ऐसे ही शरीर में रहते हुए मानने पर भी हम शरीर से अलग हैं.