कुछ दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री को एक चिठ्ठी लिखकर मांग की है कि भारत के करेंसी नोटों पर भगवान गणेश और माता लक्ष्मी की फोटो छाप देनी चाहिए , ताकि देश को इन देवी / देवताओं के आशीर्वाद मिल सकें और देश आर्थिक प्रगति कर सके ! उन्होंने अपनी बात रखते हुए यह भी लिखा है कि देश के 130 करोड़ लोगों की यह माँग है, इसका कारण बताते हुए उन्होंने अपनी चिठ्ठी में आगे लिखा है कि 130 करोड़ आबादी वाले लोग मेहनत तो बहुत करते हैं, लेकिन उनको इन देवी देवताओं का आशीर्वाद नहीं मिल रहा !
बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने अच्छे पढ़े लिखे नेताजी ने ऐसी बात कैसे लिख डाली ? माना कि देश की आबादी 130 करोड़ सही बात है; लेकिन यह सब चाहते हैं कि भारतीय करेंसी नोटों पर गणेश जी और माता लक्ष्मी की फोटो छापने से देश की अर्थ व्यवस्था सरपट दौड़ने लग जाएगी, क्या केजरीवाल जी इस बात की गरंटी दे सकते हैं ? देश चलाने के लिए कोई देवी या देवता आसमान से धरती पे नहीं उतरेंगे, यह बात तो देश वासियों ने पिछले 75 वर्षों से बड़ी अच्छी तरह से देख ली है और परख ली है ! क्योंकि देश के 90 प्रतिशत लोग भलीभाँति जानते हैं और हम लोग यह बात सदियों से सुनते आ रहे हैं कि इस देश में 33 करोड़ देवी देवते वास करते हैं, तो क्या केजरीवाल जी बताएंगे कि इन 33 करोड़ देवी देवताओं के बावजूद भी यह देश अंग्रेजों का गुलाम कैसे बन गया ? और इनके बावजूद भी यह देश दुनियां के अन्य प्रगतिशील / विकासशील देशों की श्रेणी में इतना पिछड़ा हुआ क्यों है ? कारण स्पष्ट है – इस देश में परियोजनाएं तो बहुत बनती हैं, लेकिन उन योजनाओं के वित्तपोषण के लिए उसपे ईमानदारी से अमल नहीं किया जाता और न ही समय २ पर उनके लिए धनराशि उपलब्ध करवाई जाती है ! चुनाव से पहले सभी पार्टियों के नेतागण वादे तो बहुत करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन वादों इरादों को अमली जामा नहीं पहनाया जाता ! यही कारण है कि अभी भी देश में बेइंतिहा बेरोज़गारी मुँह खोले खड़ी है, नौजवान कोई न कोई नौकरी पाने के लिए दर-बदर भटकते ही रहते हैं, लेकिन सरकार नौकरियाँ निकाल ही नहीं रही ! बल्कि पिछले कुछ वर्षों से तो ऐसा खेल चल रहा है कि कांग्रेस सरकार द्वारा बनाई गई सैकड़ों सरकारी कंपनियां ही बेची जा रही है जो देश के करोड़ों नजवानों को रोजगार देती थी ! ऊपर से महंगाई ने जनता जनार्दन की आर्थिक स्थिति और भी डाँवाडोल कर दी है !
तीसरी बात – अगर हम जनसँख्या का ईमानदारी से अध्यन करें तो पता चलता है कि देश की पूरी आबादी का लगभग 85 % हिस्सा अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातिओं वालों का है ! तो फिर यह कैसे मान लिया जाये कि देश की 130 करोड़ आबादी चाहती हैं कि भारत के करेंसी नोटों पर गणेश और लक्ष्मी जी की फोटो छाप देनी चाहिए , क्योंकि देश की इतनी बड़ी आबादी वाले समाज को अब बड़ी अच्छी तरह समझ आ गया है को उनको आज़ादी के बाद जितने भी अधिकार / सुख सुविधाएं मिली हैं, वह बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर जी के लिखे हुए संविधान से ही मिली हैं, संविधान में लिखे गए अनेकों प्रावधानों के अंतर्गत ही आरक्षण का अधिकार उनको मिला है जिसकी वजह से उनको नौकरियां मिली और अपनी इच्छानुसार काम धंधे करने का अधिकार मिला है, वरना देश में देवी देवते तो हज़ारों वर्षों से सुनते आ रहे हैं, लेकिन किसी भी देवी देवते ने कभी उनकी कोई सुध-बुध नहीं ली थी? बल्कि हजारों वर्षों से अगड़ी जातियों के लोग (जोकि इन देवी देवताओं को उनसे कहीं अधिक मानते हैं ) दलितों का शोषण / अत्याचार / उत्पीड़न ही करते आ रहे हैं और उनको दूसरे दर्जे के नागरिक बनाकर रखा हुआ था ! अत: यह बात बड़ी अच्छी तरह स्पष्ट है कि बहुजन समाज के अनेकों बड़े २ नेताओं और विद्वानों द्वारा अपने समाज को शिक्षा का मार्ग दिखलाने के बाद ही उनकी दशा और दिशा सुधरी है, लेकिन मनुवादी समाज के किसी नेता ने उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया, बल्कि उन्होंने तो दलित समाज को पढ़ने लिखने और संपत्ति रखने के अधिकार के साथ २ अनेकों और अधिकारों से भी हज़ारों वर्षों से वंचित रखा हुआ था ! धर्म मज़हब और जातिपाति के नाम से लोगों को बहलाना फुसलाना एक घटिया राजनीती है, केवल ढकोंसलेबाजी और पाखण्डबाजी के सिवाय और कुछ नहीं है, और जहां तक हो सके इससे बचना चाहिए !
चौथी बात – किसी को यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि देश के संविधान की उद्देशिका ( प्रेमबल ऑफ़ दि कंस्टीटूशन ) कहती है कि “भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न , समाजवादी , पंथनिरपेक्ष, लोक तंत्रात्मिक गणराज्य है !” तो ऐसी सूरत में देश के करेंसी नोटों पर किसी ख़ास धर्म के देवी देवताओं की फोटो कैसे लगाई जा सकती है ? हिन्दुओं के इलावा देश में सिख, मुसलमान और ईसाई भी रहते हैं, सबसे ज्यादा आबादी तो बहुजन समाज वालों की है, अगर आज हिन्दू देवी देवताओं की फोटो नोटों पे लगाई गई तो कल दूसरे धर्म / जातियों के लोग भी अपने समाज के देवी, देवताओं या फिर गुरुओं / स्वतंत्रता सेनानियों की फोटो लगाने की मांग करने लग जाएंगे? और फिर इसका तो कोई अंत नहीं होगा ! वैसे भी देश में खुशहाली और समृद्धि किसी देवी देवताओं की फोटो लगवाने से नहीं आएगी, अपने चुनावी वादे पूरे करते हुए नौजवानों को नौकरियाँ देने से उनके घरों में समपन्नता आएगी ! एक और बात – देश के 27 राज्य हैं और प्रत्येक राज्य में आरक्षित वर्ग के लोगों को समाजिक व आर्थिक न्याय दिलवाने के लिए अनेकों योजनाएं बनती हैं और उन योजनाओं को पूरा करने के लिए प्रति वर्ष हज़ारों करोड़ का बजट भी निर्धारित किया जाता है, धनराशि भी अलग आबंटित की जाती है, लेकिन क्या कोई एक भी राज्य है जिसकी सरकार यह दावा कर सके कि उन्होंने अपने राज्य में आरक्षित वर्ग के लिए अलग से आबंटित की हुई 100 % धनराशि वाक़्या ही उस समाज के लोगों पर ही खर्च की है ? नहीं, बल्कि इसके विपरीत यह देखा जाता है कि उनके लिए आबंटित धनराशि का अधिकाँश भाग तो अक्सर सरकार की अन्य योजनाओं की पूर्ति के लिए डायवर्ट कर दिया जाता है; उनके हिस्से की पूरी आरक्षित सरकारी नौकरियाँ भी उनको नहीं दे जाती ? उनके बहुत से उम्मीदवारों को तो एनएफएल बोलकर उनके लिए नौकरी के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं, तो फिर देश के इस 85% समाज के लोगों के घरों में खुशहाली / संपन्नता कैसे आएगी ?
और आखिरी बात – अगर फिर भी कुछ लोग ऐसा अनुभव करते हैं कि देश की आज़ादी के 75 वर्ष बाद करेंसी नोटों पर फोटो बदली जानी चाहिए या महात्मा गाँधी के साथ ही कोई दूसरी और फोटो भी छाप देनी चाहिए, तो विकल्प बहुत हैं, लेकिन किसी देवी देवते की फोटो की कोई जरुरत नहीं है, क्योंकि काल्पनिक / मिथ्यक / साहित्यिक रचनाओं के नायक नायिकाओं की फोटो लगाने से सौ गुना बेहतर है कि देश के उन महान विद्वानों / नायकों / विज्ञानकों / समाज सुधारकों की फोटो छापी जाये जोकि हाड़ मास के चलते फिरते इन्सान थे और जिन्होंने वाक्य ही समाज और देश के लिए अनथक बड़े २ कार्य किये हैं जिनकी वजह से देश वासियों की जिन्दगी में हज़ारों परिवर्तन और सुधार हुए हैं ! तो क्यों ना हम उन महान विभूतियों को उनका बनता मान सम्मान दें ! ऐसे महान समाज सुधारकों ने अपने 2 समय पर आकर अपना पूरा जीवन हाड़ तोड़ मेहनत की, संघर्ष किये हैं और देश ने नागरिकों को समय २ एक नई राह दिखलाई, ताकि समाज दकियानूसी / रूढ़िवादी मानसिकता वाले रीति रिवाज़ों को तिलांजलि देकर उनके दर्शाए गए मार्ग पे चले और अपनी जिंदगी बद से बेहतर और बेहतर से बेहतरीन बना सकें ! इस कड़ी में अनेकों नाम स्मृति पटल पे आते हैं , जैसे कि – महात्मा ज्योतिबा फूले, और देश की पहली महिला शिक्षिका – माता सावित्री बाई फूले जिन्होंने लड़कियों के लिए देश का पहला स्कूल 1848 में पुणे में खोला और उसमें पढ़ाने लग गई, हालांकि मनुवादी लोगो ने उनको भ्रष्ट बुद्धि, पापी तक बोल दिया था और जब वह बच्चों को पढ़ाने के लिए घर से निकलती थी, अगड़ी जातियों वाले लोग उनपे कीचड / गोबर इत्यादि फेंक देते था ! झलकारी बाई, अहिल्याबाई होल्कर, रामजी सकपाल, सिम्बल ऑफ़ नॉलेज़ – भारत रत्न, बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर, ईवी रामास्वामी पेरियार, अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अब तक के नोबल पुरुस्कार विजेता – गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, चंद्रशेखर वेंकटरमन , डॉ. हरगोबिंद खुराना, अमर्त्य सेन, वेंकटरमन रामकृष्णन, कैलाश सत्यार्थी और देश के अनेकों वैज्ञानिक – सत्येंद्र नाथ बोस, जगदीश चंद्र बोस, डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम, डॉ. इसरार अहमद और डॉ. सीएम हबीबुल्लाह इत्यादि के नामों पर भी विचार किया जा सकता है !
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे देश ने टीवी पर आरतियाँ होती भी बहुत देखी हैं, लेकिन इससे समाज में कोई आर्थिक सुधार नहीं हुआ, बल्कि ऐसा अनुभव हुआ है कि नेतागण जनता की धार्मिक भावनाएं भड़काकर उनको अंध भक्त ही बनाते हैं, समाज का कोई कल्याण नहीं करते ! देश में जगह २ बने हुए लाखों मन्दिर हैं जिनमें रखी हुई दान पेटियों में प्रत्येक महीने करोड़ों रूपये आते हैं, और इतनी बड़ी धनराशि का लाभ केवल देश की एक विशेष जाति के लोगों को ही मिलता है ! इस समस्या से निपटने के लिए कोई ऐसे ठोस नियम बनाए जाने चाहिए , ताकि इन लाखों दान पेटियों में चढ़ने वाले चढ़ावे का लाभ पूरे समाज को मिले, नाकि केवल एक जाति विशेष के लोगों को ही !
देश की जनता ने यह भी देखा है कि कोरोना काल में उस अत्यंत भयंकर बिमारी से निपटने के लिए कोई डॉक्टरी ईलाज का प्रबंध करने की बजाये अनपढ़ जनता को एक बड़े नेता ने अपने २ घरों की बालकोनी में खड़े होकर पाँच मिन्ट के लिए ताली और थाली बजाने के लिए बोल दिया था ? लोगों के काम धंधे बंद हो गए थे लेकिन कहीं से उनको कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल रही थी ! और अब कुछ और शातिर दिमाग वाले नेतागण आम जनता को समझा रहे हैं कि वह अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में नहीं, बल्कि हिंदी भाषी स्कूलों में ही पढ़ाएं ; क्योंकि हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है; जबकि सभी बड़े २ अधिकारियों और नेताओं के अपने बच्चे देश / विदेश के बड़े २ अंग्रेजी / कॉन्वैंट सकूलों / कॉलिजों में उच्चकोटि की शिक्षा गृहण कर रहे हैं ? जबकि बहुत से सरकारी स्कूल ही हिन्दी / क्षेत्रीय भाषा माध्यम वाले हैं और हज़ारों ऐसे स्कूलों में तो पूरे अध्यापक भी नहीं होते, तो फ़िर ऐसी प्रस्थितियों के चलते गरीब परिवारों के बच्चे वहाँ शिक्षा कैसे हासिल कर सकेंगे ?
नेताओं की ऐसी दोगलपन्ति आम जनता जनार्दन के लिए गंभीर सोच विचार का विषय है और अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उनको कहां पढ़ाना है, इसका निर्णय उनके माता पिता को ही अपने हालात / साधनों को ध्यान में रखते हुए ही करना चाहिए !
आर डी भारद्वाज ” नूरपुरी “