हमारा देश ऋषियों मुनियों , पीर पैगंबरों का देश है और इस धरती पर समय – २ प्रत्येक धर्म में हज़ारों ऋषियों मुनियों और गुरुओं ने जन्म लिया और भ्रमों, बुराईयों, आडंबरों और कुरीतियों के अंधकार में डूबे हुए लोगों को निकालने की सबने अपने २ ढंग से और समयुनसार बेअंत प्रयास किये ! वैसे भी अध्यात्मवाद में तो यही माना जाता है कि जब – २ धरती पे पाप बढ़ते हैं, तो ईश्वर खुद ही किसी न किसी रूप में इन्सानी चोले में आकर आम जनता जनार्दन का कल्याण करता हैं ! श्री गुरु रविदास जी महाराज भी 15वीं शताब्दी के एक महान सतगुरु, दार्शनिक, आध्यात्मिक कवि और समाज सुधारक विद्वान थे, जिन्होंने उस वक़्त जिन्होंने उस वक़्त समाज में चल रही बहुत सी बुराईआं / आडंबर / कुरीतियाँ , जैसे कि जातिपाति के आधार पर छुआछात , अस्पृश्यता , पाखण्डबाजी, बेसिरपैर के ढोंग करके पंडितों द्वारा तरह २ के कर्मकांडों के माध्यम से लोगों को ठगना, इत्यादि, से आम जन साधारण को छुटकारा दिलवाया ! फ़रवरी महीने में इनके जन्म दिवस के अवसर पर देश के अनेक भागों में, खास तौर पे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश में बहुत सारे सुन्दर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इनके अनुयाई इस दिन को बड़ी धूमधाम से एक त्यौहार की तरह ही मनाते हैं।
एक दलित परिवार में, गोवेर्धन पुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश में माता कलसा देवी और पिता संतोख दास जी के घर उन्होंने 1433 में अवतार लिया था ! उनके पिता जी अपने गाँव
के प्रधान भी थे और चमड़े का काम किया करते थे और जीवन यापन के लिए जूते बनाकर बेचा करते थे ! वह बचपन से ही बहुत निडर, साहसी थे और साफ़गोई से सच्चाई ब्यान करने की हिम्मत रखते थी ! बचपन से ही ईश्वर के प्रति भक्ति उनके ह्रदय में समाई हुई थी और उन्होंने अपना पूरा जीवन सांसारिक इच्छाओं रहित ही बिताया ! उनको बहुत सारे उच्च जातियों द्वारा बनाये गए अपमान-जनक नियमों और मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा था जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने लेखों / बाणी में भी किया है। उनको बचपन से ही उच्च कुल वालों की हीन भावना का भी शिकार होना पड़ा था, और उन्होंने समाज की ऐसी व्यवस्था को बदलने के लिए अपनी कलम और बाणी का सहारा लिया, वे अपनी रचनाओं के द्वारा मनुष्य जीवन का उदेशय लोगों को समझाते ! उन्होंने सब लोगों को बिना किसी भेदभाव के सबसे एक समान प्रेम भावना से रहने की शिक्षा दी !
दूसरी तरफ़, तुलसीदास जी (जीवनकाल 1511 से 1623) का पूरा नाम गोस्वामी तुलसीदास था और वह गुरु रविदास जी के समकालीन ही थे और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान जिला बाँदा के राजापुर गाँव में हुआ था ! इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था ! इनके बचपन के बारे में इतिहासकार लिखते हैं कि इनको जन्म देने के थोड़े ही दिनों बाद इनकी माता की मृत्यु हो गई थी, जिसकी वजह से इनके पिताजी अपने बेटे को अपने लिए अशुभ मानने लग गए और थोड़े अर्से बाद में उन्होंने बालक तुलसी दास को चुनियाँ नाम की एक रिश्तेदार को सौंप दिया ! उनकी यह पालक माता उसे अपने गांव हरिपुर ले गई और उसने इनका नाम रामबोला रख दिया ! तुलसी दास अभी छः वर्ष के ही थे कि इनकी पालनहार माता चुनियाँ का भी निधन हो गया और इसके कारण तुलसी दास का बचपन तो अनाथों की तरह ही बड़े कष्टों में बीता ! पेट की आग शान्त करने के लिए इनको बहुत बार भीख भी मांगनी पड़ी और यह गाँव के हनुमान मन्दिर में ही सो जाया करते थे ! नरहरिदास नाम के एक अध्यापक ने इनको स्कूली शिक्षा प्रदान की ! उस वक़्त की प्रचलित रीतिरिवाजों के हिसाब से बहुत देरी से, 29 वर्ष की उम्र में उनकी शादी दीनबंधु पाठक जी की पुत्री रत्नावली भारद्वाज से हो गई ! संतान के नाम पर इनके घर एक पुत्र (तारक) ने जन्म लिया, लेकिन वह भी ज़्यादा वर्ष नहीं जी पाया और आठ नौ वर्ष की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई ! तुलसी दास जी का अधिकांश जीवन चित्रकूट, कांशी , बनारस और अयोध्या में ही बीता ! इनके जीवन परिचय से यह भी पता चलता है – क्योंकि तुलसी दास का कोई सगा भाई बहन नहीं था, जो इनको दिल से प्यार मोहब्बत करता, जब इनकी शादी हो गई तो यह अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्यार करते थे ! एक बार जब इनकी पत्नी मायके गई हुई थी, तुलसीदास घर में अकेले बड़े उदास हो गए और वह बारिश के मौसम के बावजूद आधी रात को ही अपने ससुराल पहुँच गए, व्याकुल तुलसी दास जी को आधी रात को अपने घर आया देखकर उनकी पत्नी बड़ी आश्चर्यचकित हो गई और उसने अपने घर वालों के सामने बड़ा असहज और शर्मिंदा अनुभव किया और उनको डांट लगाते हुए बोली — “लाज न आई आपको दौरे अइयो नाथ !” लोक-लाज के भय से जब उसने चुपचाप वापस जाने के लिए आग्रह किया, तो तुलसीदास जी ने भी उत्तर दिया कि जबतक आप अपने माईके में रहोगी, मैं भी यही ठहरूँगा, नहीं तो आप भी मेरे साथ अपने गाँव राजापुर चलो ! तुलसी दास की इस अप्रत्याशित जिद्द से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से उनको झकझोरने की कोशिश की :-
अस्थि चर्म मम देह यह, तासो ऐसी प्रीत / नेकु जो होती राम से, तो काहे भव गीत ?
अर्थात – आप मेरे इस हाड़ मास के बने शरीर को जितना आप प्रेम करते हो, अगर इतना प्रेम प्रमात्मा से करते, तो तुम्हारा कल्याण न हो जाता ? कहते हैं कि पत्नी का यह ताना तुलसी दास को बहुत बुरी तरह चुभ गया और वह दूसरे ही दिन वहाँ से चल दिए ! ससुराल से जब वापिस अपने गॉँव आये तो पता चला कि उनके पिताजी भी परलोक सिधार गए हैं ! उनके अंतिम संस्कार से फ़ारिग होने के बाद, वह अपने शिक्षक नरहरिदास से मार्ग दर्शन लेकर धार्मिक पुस्तकों के अध्यन के लिए चित्रकूट चले गए !
सतगुरु रविदास जी और तुलसी दास, दोनों ही बड़े विख्यात कवि , दार्शनिक और संदेवनशील विद्वान थे ! दोनों का जन्म भक्तिकाल में ही हुआ, लेकिन इसके बावजूद भी दोनों की विचारधारा और समाज की बनाई गई रवाईतों के प्रति जमीन आसमान का अंतर दिखाई देता है ! तुलसी दास एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए और मनुसमृति में बताई गई वर्ण व्यवस्था को कटड़पंथी से मानने वाले थे, जबकि गुरु रविदास जी दलित परिवार में जन्मे और एक मेहनतकश / स्वतंत्र विचारधारा में यकीन रखते थे ! अगर हम दोनों का तुलनात्मिक अध्ययन और विश्लेषण करने की कोशिश करें तो हमें दोनों में अनेक असमानताएँ भी स्पष्ट रूप से नज़र आती हैं !
गुरु रविदास जी केवल दलित समाज ही नहीं , बल्कि पूरे समाज के लिए ऐसी मंगल कामना / शासन व्यवस्था की कामना रखते हुए अपने एक दोहे में फ़रमाते हैं :-
ऐसा चाहू राज मैं, जहाँ मिले सभन को अन्न ।
छोटे बड़े सब सम बसै, रविदास रहे प्रसन्न ॥
लेकिन दूसरी तरफ़ तुलसी दास की विचारधारा तो मनुसमृति आधारित ब्रह्मिणवादी मानसिकता वाली थी और शूद्र समाज में जन्मे किसी भी व्यक्ति से जानवरों जैसा व्यवहार करते थे, उनका रवैया शूद्रों और स्त्रियों के प्रति बड़ा ही नकारत्मक था, जिसकी वानगी इस दोहे में भी मिलती है : –
ढोल, गंवार , शूद्र, पशु, नारी ।
सकल ताड़न के अधिकारी ॥
गुरु रविदास जी यह जातिप्रथा और धर्म मज़हब को बिलकुल ही गलत मानते थे, उनका कहना था कि जन्म के आधार पर किसी को बड़ा छोटा या फ़िर ऊँचा नीचा समझना निहायत ही घटिया सोच की बात है ! आदमी अपने जन्म से नहीं , बल्कि कर्मों से बड़ा या छोटा बनता है :-
रविदास जन्म के कारनै होत ना कोऊ नीच ,
नर कू नीच करि डारि है, ओछे कर्म की कीच !” या फिर :-
जातपात के फ़ेर में उरझि रहे सब लोग ,
मनुष्यता कू खात है, रविदास जात का रोग !
गुरु रविदास जी कहते हैं कि मानवता को समाजिक जातिपाति, ऊँच नीच , वर्णव्यवस्था , जाति व्यवस्था इत्यादि के रोगों ने डस लिया है , समाज में बड़े लोग हमेशा इसी मामले में उलझे रहते हैं कि अमुक बन्दा मेरे से ऊँचा / नीचा है, वह इसी झूठे अभिमान / भावना में ही उलझा रहता है ! इस जातिपाति के रोग ने हमारे समाज को खोखला कर रखा है और सभी को इस झूठे अभिमान से छुटकारा पाने की जरुरत है !
जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए और इसको घटिया घृणित करार देते हुए गुरु रविदास जी अपने एक और दोहे में हमें समझाते हुए फ़रमाते हैं :-
जाति – जाति जाती है , ज्यों केलन में पात ,
रैदास मनुष्य ना जुड़ सके, ज्यों लो जाति ना जात !!
हमारे देश और समाज में जातिपाति ऐसे समाई हुई है जैसे केले का पेड़ हो — किसी केले के पेड़ के तने से एक छिलका उतारो, एक परत उतारने पर दूसरी शुरू ही जाती है , वह भी उतार दो तो तीसरी आने लगती है ! परतें उतारते – २ केले का पेड़ समाप्त हो जाता है , ठीक इसी प्रकार इस हिन्दू समाज में जातियाँ समाप्त नहीं होती, इन्सानों में मानवता समाप्त हो जाती है, लेकिन जातिपाति ख़त्म नहीं होती ! इसलिए गुरु रविदास जी समझाते हैं कि अगर आप समाज में सब लोगों के साथ प्रेम मोहब्बत के रिश्ते स्थापित करना चाहते हो तो एक दूसरे की जातियाँ मत पूछो , यह सब बेकार की बातें हैं, आपसी प्रेम में यह बहुत बड़ी बाधाएँ उत्पन करती है !
बाकी ब्राह्मण समाज की तरह ही तुलसी दास जी भी राजा राम को भगवान ही मानते थे और तमाम उम्र लोगों को भी यही समझाते रहे कि राम स्वंम विष्णु के अवतार हैं और पूजनीय हैं, जबकि गुरु रविदास जी ने उनको कभी भगवान माना ही नहीं ! रविदास जी की नज़र में राम केवल राजा दशरथ के पुत्र थे और अपने पिता की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी होने के नाते गद्दी पे बिराजमान हुए, उनके जीवन में भगवान होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते ! अपने एक दोहे में वह यह तरक स्पष्ट रूप से लिखते हैं :
रविदास हमारो राम जी , दशरथ करि सुत नहिं ,
राम हमउं माहि रमि रहयो , बिसब कुटम्बह माहि !”
अर्थात – हम जिस राम को भगवान मानते हैं, वह राजा दशरथ का पुत्र राम नहीं है , हमारा राम तो वह राम है जोकि परमात्मा का रूप / अंश है और हमारे शरीर में आत्मा बनके रचा बसा हुआ है , हमारा राम वह राम है जिसके लिए पूरा संसार ही एक बहुत बड़े कुटुम्ब के समान है, मैं तो केवल उसी राम को भगवान मानता हूँ !
लेकिन तुलसीदास जी अपने एक दोहे में राजा राम को स्पष्ट लफ़्ज़ों में भगवान मानते हुए लिखते हैं :-
राम नाम को कल्पतरू , कलि कल्याण निवासु ,
जो सिमरत भयो भाँग ते , ते तुलसी तुलसी दास !!
अर्थात – राम का नाम कल्पतरु पेड़ (मन इच्छित फ़ल देने वाला) के समान है , और राम नाम जपने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है , जिसका नाम स्मरण करने से भाँग के पौदे समान तुलसीदास भी तुलसी के पौदे के जैसा पवित्र हो गया है !
संत तुलसी दास के मन में मनुसमृति में बताई गई मान्यताएँ इतनी गहरी रची बसी हुई थी कि शरेआम कहते थे कि ब्राह्मण कैसा भी हो , उसकी पूजा करनी ही चाहिए, और शूद्र भले ही कितना भी पढ़ालिखा क्यों ना हो, वह कभी मान सम्मान योग्य नहीं हो सकता, अपनी इसी सोच का प्रदर्शन वह अपने एक और दोहे में करते हुए फ़रमाते हैं :-
पूजहि विप्र सकल गुण हीना ।
शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा ॥
अर्थातः ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान / गुणों से रहित हो, उसकी तो पूजा करनी ही चाहिए, शूद्र चाहे कितना भी गुणवान / ज्ञानी पुरुष क्यों ना हो, लेकिन वह कभी पूजनीय नहीं हो सकता ।
लेकिन तुलसी दास की इस धारणा को सिरे से ही नकारते हुए गुरु रविदास जी आगे चलकर इसका भी उत्तर देते हुए लिखते हैं : –
रविदास बामण मत पूजिए, जऊ होवै गुणहीन !
पूजहि चरण चांडाल के, जोऊ होवै गुण प्रविण ॥
हज़ारों वर्षों से फ़ैलाए गए एक अन्धविश्वास के माध्यम से ब्राह्मण लोग अपने आप को हमेशा ही श्रेष्ठ बताते रहे हैं और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक बड़ा ही हास्यप्रद तर्क पेश करते हैं कि – जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की , तो ब्राह्मण उनके के मुख / मस्तिष्क से पैदा हुए , क्षत्रिय उसके भुजाओं से जन्मे , वैश्य का जन्म उसके पेट से हुआ और अंत में , शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से हुआ, इसलिए ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ हैं और शूद्र सबसे नीच ! लेकिन सतगुरु रविदास महाराज ने इस थ्यूरी को ही सिरे से नकार दिया और कहा कि यह केवल अनपढ़ लोगों को मूर्ख बनाने वाली बात है ! पूरे संसार की उत्पति के बारे में वह एक दोहे में लिखते हैं :-
रविदास एक ही बूँद सौ , सब भयो बिस्तार !
मूरिख हैं जो करत हैं वर्ण आवरण विचार “
अर्थात – गुरु रविदास जी इस दोहे के माध्यम से हमें समझाने की कोशिश करते हैं कि पूरी मानव जाति का जन्म एक ही साधन / प्रक्रिया से होता है और वह है स्त्री और पुरुष के मिलन के बाद, और जन्म की इस प्रक्रिया में आदमी की एक बूँद (उसका वीर्य ) सहायक होती है और पूरा संसार एक ही विधि से चलता है , नर और मादा के मिलन के बाद ही संतान की उत्पति होती है , सभी पशु पक्षियों में भी यही साधन प्रचलित है, इसके बिना कोई बच्चा पैदा नहीं हो सकता ! वेद ग्रंथों में जैसे लिखा हुआ है कि ब्रह्मा के मुख से, पेट से, भुजाओं से , और पैरों से इत्यादि — यह सब बातें कोरा झूठ हैं और भ्रम फ़ैलाने वाली कहानी ही है , इस में कोई सच्चाई नहीं है ! और ऐसी बातों पर विश्वास करने वाले भी मुर्ख लोग ही हैं ! बच्चा केवल आदमी और औरत के मिलन से ही पैदा होता है और यह बात सार्वभौमिक सत्य है, बाकी सब मिथ्या है !
यहाँ यह बताना भी अनिवार्य है कि धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक किस्से कहानियाँ पढ़ने को मिलते हैं कि जब किसी रानी के घर संतान नहीं हुई तो राजा ने किसी ऋषि मुनि को बुलवाया , यज्ञ करवाया और उस यज्ञ के बाद ऋषि ने रानी को खीर / आम का फ़ल या फिर कोई और वस्तु खाने को दी , और उसके खाने के बाद उनके घर में संतान हुई ! यहीं बस नहीं , कुछ जगहे तो यह भी लिखा गया है कि फ़लाने योद्धा का जन्म एक मछली के पेट से हुआ , वगेराह – २ ! ऐसी तमाम बातें कोरी कल्पना मात्र हो सकती हैं , और हकीकत से इसका कोई सरोकार नहीं है , क्योंकि बच्चे ऐसे पैदा नहीं होते !
एक और दोहे में गुरु रविदास जी फ़रमाते हैं :-
ब्राह्मण और चांडाल माहिं, रविदास अंतर नहीं जान !
सब माहिं एक ज्योत है , सब घट एक भगवान !!
अर्थात : ब्राह्मण और चांडाल में कोई भी अंतर नहीं है , दोनों में एक ही प्रकाश (ईश्वर का अंश – आत्मा) है, दोनों एक ही प्रकार के श्वास से चलते हैं, दोनों के शरीर का ढांचा भी एक जैसा ही है , अत: दोनों में ऊँच नीच कुछ भी नहीं है !
केवल इतना ही नहीं , गुरु रविदास जी ने तो कभी हिन्दुओं और मुसलमानों में भी कोई अंतर नहीं माना ! उन्होंने अपने एक दोहे के माध्यम से समझाने की कोशिश की है कि जैसे सोने और सोने के बने कंगन में कुछ भी अंतर नहीं होता, उसी तरह हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई अंतर नहीं है , दोनों मनुष्य उसी ईश्वर के बनाये हुए बन्दे हैं और सभी एक समान हैं ! वह एक और दोहे में लिखते हैं :-
रैदास कनक और कँगन माहिं, जिमि अंतर कछु नाहिं !
तैसे ही अंतर कछु नाहिं , हिन्दुअन तुरकन माहिं !!
मनुवादी व्यवस्था में दर्शाए गई वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण वर्ग दलितों को हमेशा गुलाम बनाकर रखने में विश्वास रखते हैं, वह उनपे तरह २ के शोषण / अत्याचार करते हुए उनपे अनेक प्रकार की पाबंदियाँ लगाते रहे हैं और आज भी लगा रहे हैं , उनका मन्दिरों में जाना वर्जित किया जाता है, जबकि गुरु रविदास जी ने हमेशा ही इस घटिया विचार वाली व्यवस्था का विरोध किया है और अपने एक श्लोक में वह फरमाते हैं :-
पराधीनता पाप है , जान लियो रे मीत !
रैदास दास पराधीन सो , कौन करे है प्रीत ! या फ़िर —
प्राधीन का दीन क्या, प्राधीन बेदीन / रविदास प्राधीन को , सब ही समझें हीन !!
तुलसीदास जी अन्य ब्राह्मणों की तरह तीरथ स्थलों की यात्रा और वहां पर स्थापित देवी देवताओं के दर्शन करने पर बल देते हैं, जबकि गुरु रविदास जी ऐसी विचारधारा का भी विरोध करते हुए फरमाते हैं :-
का मथुरा , का द्वारका , का काशी हरिद्वार !
रविदास दिल खोजा आपणा , तऊ मिला दिलदार !!
अर्थात – गुरु रविदास जी तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने को व्यर्थ मानते हैं, वह कहते हैं कि ईश्वर किसी तीर्थ स्थल में नहीं मिलते, इसलिए उनको इधर उधर ढूँढना व्यर्थ है, वह तो हमेशा मेरे दिल में ही रहता है, सो फालतू के आडम्बर करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है !
हिन्दू पूजई देहरा, मुसलमान मसीति, रविदास पुजई उस राम को, जिस निरंतर प्रीति !!
गुरु रविदास जी इस दोहे में फ़रमाते हैं कि हिन्दू लोग मन्दिर जाकर देवी देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं और मुस्लमान मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ते हैं, लेकिन इस सबसे अच्छा काम उस भगवान को पूजना चाहिए जो हम सबके अंदर बसता है, जिसकी वजह से हम सबको जीवत बनाए हुए है ! धर्मों मजहबों में पड़ने से कहीं बेहतर है की सभी इन्सान आपसी प्रेम भावना से रहे !
माथे तिलक हाथ जपमाला , जग ठगने कू स्वाँग रचाया !
मार्ग छाड़ि कुमारग डहके , साँची प्रीत बिन राम ना पाया !!
हिन्दुओं के धार्मिक ढकौंसलों पर तंज कसते हुए गुरु रविदास जी फ़रमाते हैं कि माथे पर तिलक लगाकर , हाथ में माला जपना एक नाटक मात्र ही है, ऐसा करने वाला बंदा केवल अंधविस्वास ही फ़ैला रहे हैं, जबकि सच्ची प्रीत तो पूरी मानव जाति की सेवा करने में ही है !
सो ऊपर लिखी हुई दोनों संतो की रचनाओं से दोनों महान विद्वानों की विचारधारा में अंतर स्पष्ट हो जाता है! गुरु रविदास जी कुछ धर्म ग्रंथों में वर्णित जातिपाति और वर्ण-व्यवस्था या फ़िर धर्म मज़हब में बिलकुल भी विश्वास नहीं रखते थे और सब इन्सानों को एक समान मानते हुए युग / व्यवस्था परिवर्तन करना चाहते थे, वह झूठे पाखण्डवाद और ढकोंसलों से भी हमें छुटकारा दिलवाना चाहते थे , जबकि तुलसीदास इतना पढ़ने लिखने के बावजूद भी अनेक छोटी – २ बातें समझ नहीं पाए और जातिपाति आधारित छुआछुत को मानते ही रहे, धर्म मजहब और ऊँच-नीच की पालना करते रहे ! वह अपने ज़माने के जीते जागते इन्सानों को भूलकर परलोक सिधार चुके राजा को ही भगवान बनाने में लगे रहे !
एक और महान सन्त महात्मा गौतम बुद्ध ने भी अपने एक श्लोक के माध्यम से हमें समझाने की कोशिश की है कि – न नदी / झील में स्नान करने से, न ही सिर मुँड़वाने से , न पूजापाठ करने से , न कलाई में कोई धागा बाँधने से, न किसी देवी देवते का नाम रटने से , न कोई ख़ास कर्मकाँड करने से आदमी पवित्र होता है ! न किसी जाति से , न किसी विशेष कुल / वंश में जन्म लेने से आदमी पवित्र होता है, बल्कि सत्य से , अच्छे चरित्र से और शीलवान होने से आदमी पवित्र हो पाता है और ऐसे सदाचार वाले बन्दे ही भगवान को भाते हैं ! बनना है तो अच्छे इन्सान बनो जिसके दिल में दया, करुणा, त्याग, दूसरों के प्रति प्यार मोहब्बत और स्नेह हो, क्योंकि इन्सानियत से बढ़कर कोई धर्म नहीं है !
और अंत में, एक और बात की जिक्र करना भी यहाँ अनिवार्य है कि चौहदवीं शताब्दी से शुरू हुए इस 350/400 वर्ष लम्बे काल को उस समय के महान संत महात्मा – जैसे कि संत कबीर , तुकाराम, स्वामी अग्रदास, स्वामी हरिदास, मीरा, संत नामदेव, सूरदास, नंददास, जयदेव , पीपा, गुरु नानक देवजी और कृष्ण्दास जी ने भी इतने लम्बे समय में प्रचलित रूढ़िवादी मान्यताओं और जातिपाति को तोड़ने के लिए बड़े २ यत्न किये, जगह २ जाकर लोगों को समझाने को बड़े प्रयत्न किये और सभी इंसानों को एक दूसरे के प्रति किसी किस्म का वैर विरोध भूलकर प्यार मोहब्बत का ही सन्देश दिया है, दरअसल वह दौर समाजिक व आध्यात्मिक चेतना फ़ैलाने और व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन था,
जिसे मनुवादी परम्पराओं को मानने वालों ने भक्तिकाल का रंग रूप देकर उस समाजिक चेतना आंदोलन के प्रभाव को कम करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वह सफ़ल नहीं हो पाए !
आर डी भारद्वाज “नूरपुरी”