मानवता का महापर्व – मजदूर दिवस


संजय कुमार सुन्दर

विकास का मतलब केवल बढ़ती जीडीपी, चमचमाती सड़कें, बढ़ता उपभोग और उछाल लेते शेयर बाजार ही नहीं है । विकास अपने आप में एक व्यापक अवधारणा है । जितना यह बाहरी और भौतिक चीजों से जुड़ा है, उतना ही यह मानवीय मूल्यों से भी जुड़ा है। जितना यह सरकार से जुड़ा है, उससे कहीं ज्यादा यह समाज से जुड़ा है । समाज के जीवन मूल्य और आर्दशों का समाज के विकास से बहुत गहरा रिश्ता है । किसी देश तथा वहां के समाज में लघु – उधोगों के मुक्त और गतिशील होने का सम्बन्ध वहा पर सृजनशील चेतना के मुक्त होने से अर्थ रखता है । जिस प्रकार एक साहित्यक या कलात्मक प्रतिभा और कल्पनाशीलता होती है उसी प्रकार व्यवसायिक सृजनशीलता भी होती है ।

आगामी 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के 122 वर्ष पूरे हो जाएंगे । बहुत अनुष्ठानिक प्रतीत होते हुए भी ये हमें एक संदर्भ देता है कि हम इन सालों में मजदूरों के जीवन जगत में आए बदलावों का थोड़ा मूल्यांकन करें । भारतीय इतिहास में 1800 -1850 ई0 के मध्य के समय को भारत के प्राक औधोगीकरण के काल के नाम से जाना जाता है । जहां एक ओर इंग्लैंड में हुई औधोगिक क्रांति के फलस्वरूप विश्व में औधोगिकरण की प्रक्रिया गति पकड़ रही थी वहां पर भारतीय हस्त उधोगों का विनाश हो रहा था । भारत में आधुनिक उधोगों का प्रारम्भ 1850 ई0 में हुआ । इन नए प्रकार के उधोगों का विकास दो रूप में हुआ । अंग्रेजों ने पहले नील, चाय, कहवा वाले बगान उधोगों में रूचि ली । 1875 के बाद कारखाना उधोग का विकास हुआ जिनमें कपास, चमड़ा, लोहा, चीनी, सीमेंट, कागज, लकड़ी, कांच आदि उधोग शामिल थे । मजदूरों की हितों की रक्षा के लिए 1881, 1891, 1911, 1922, 1934, 1946 में कारखाना अधिनियम पारित किया गया । परन्तु स्वतंत्र भारत का पहला विस्तृत कारखाना अधिनियम 1948 ई0 में लाया गया, जिसमें श्रमिकों की बदत्तर स्थिति को बेहतर करने का प्रयास सच्चे मन से किया गया ।

भारत में आधुनिक उधोगों की शुरूआत 1850 से 1870 के बीच हुई। औधोगीकरण के साथ साथ इस क्षेत्र में अनेक बुराइयांॅ जैसे अधिक समय तक श्रमिकों से काम लेना, कठोर श्रम, आवास की असुविधा, कम पारिश्रमिक, मृत्युदर में अधिकता व्याप्त थी । श्रमिकों ने औपनिवेशिक राज्य से लड़ने के लिए संगठन की आवश्यकता महसूस की । जिसके परिणाम स्वरूप 1844 ई0 में भरत का पहला श्रमिक संघ की स्थापना एन0 एम0 लोखंाडे के नेतृत्व में की गई । द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद श्रमिकों के आंदोलन में तेजी आई । रूस के 1918 की साम्यवादी क्रांति ने भारतीय मजदूर संधों को प्रोत्साहित किया । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय मजदूर सधं (I.L.O.) तथा कालांतर में भारत में भी अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (A.I.T.U.C.) भारतीय ट्रेड यूनियन फंडरेशन (I.T.U.F.) भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (I.N.T.U.C.) हिन्द मजदूर सभा (I.T.U.C.) । सभी प्रमुख श्रमिक संघों की स्थापना का उद्वेश्य भारत में लेकतांत्रिक समाजवादी समाज को स्थापित करना , मजदूरों के हित, अधिकार एवं सुविधा की लड़ाई लड़ना आदि था । मगर दुर्भाग्यवश आजाद भारत के इतिहास में संगठित क्षेत्र के मजदूरों की राजनीतिक स्थिति आज शायद सबसे कमजोर है। असंगठित क्षेत्र का व्यापक उभार मजदूरों की दुनियां में होने वाले सबसे महत्वपूर्ण बदलावों में एक है, जहा न श्रम अधिकार है और न ही राज्य की सुरक्षा ।

दिल्ली विस्थापित मजदूरों का बहुत बड़ा केन्द्र बन चुकी है जो मजदूर बिना किसी खास और दमदार पूर्व परिचय के दिल्ली पहुंचते है, उनके पास अंसगठित क्षेत्र में ही काम करने का विकल्प होता है और काम की तलाश उन्हें लेबर चैक ले जाती है । चैक चैराहों पर दिल्ली में रोज लगने वाली श्रम मण्ड़ी अंसगठित क्षेत्र की मजदूरी का एक विशिष्ट उदाहरण है । पूंजीवादी विकास के विभिन्न चरणें में ऐसी श्रम मंडि़यों का विकास होता है और ये लगभग हर छोटे – बडे़ शहरों में पायी जाती हैं, लेकिन दिल्ली में हम उनके कई आयाम देख सकते हैं मजदूरों की एक बडी संख्या सुबह सुबह अलग अलग लेबर चैंक पर जमा हो जाती है। मिस्त्री, बेलदार, कारीगर, निर्माण मजदूर सब मिल जाते है यहां । जब तक कोई काम देने न आ जाए यहां, चाय बीड़ी सिगरेट और अनुभवों को साझा करते रहते हैं लेबर चैंक के मजदूर । जिन मौसमों में उनकी मांग ज्यादा होती है, उस वक्त वे अपने श्रम का कुछ मोल भाव भी कर लेते है। दिल्ली मे तकरीवन 100 से ज्यादा लेबर चैंक हैं । सदर बाजार स्थित बारा टूटी चैंक दिल्ली की सबसे बड़ी श्रम मण्ड़ी है । एक लेबर चांैक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पास मुनिरका में भी है, जहां तक शायद मजदूरों के अधिकारों के हिमायती कैंपस के छात्रों की आवाज नहीं पहुंच पाती ।

एक दौर में दिल्ली में टेक्सटाईल उधोग की अच्छी- खासी मौजूदगी रही है लघु उधोग भी रहे हैं लेकिन इस शहर को हमेशा से औधोगिक केन्द्र से ज्यादा एक व्यापारिक केन्द्र की तरह देखा जाता था । मजदूर आंदोलन के इतिहास में दिल्ली को कभी कोई खास दर्जा तो नहीं रहा, लकिन इस शहर के पास भी कुछ खास उदाहरण हैं खासतौर पर 1988 में औधोगिक मजदूरों द्वारा किया गया 7 दिन का बन्द । इस आंदोलन में छात्र, शिक्षक, कलाकार और कर्मचारियों ने भी बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की । इसने राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन को भी प्रेरित किया । इसके जरिये मजदूर न्यूनतम मजदूरी में बड़ोतरी और कुछ अन्य सुविधाएं हासिल कर पाए । इस आंदोलन की वजह से ही आज वाकी राज्यों की अपेछा दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी की दर ज्यादा है अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब गुडगांव में मारूति मजदूरों की एकताबद्ध कतारें अपनी मांगों के साथ डटी हुई थीं । दिल्ली के मजदूरों की ये कहानी न तो नई है, न ही अकेली । उनकी मुक्ति का स्वपन भी नया नहीं है । मजदूरों की मुक्ति के स्वपन को लिपीबद्ध करने वाले कार्ल माक्र्स का पंसदीदा शब्द संधर्ष जो अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की ऐता का प्रस्थान बिन्दू है दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा आज भी अपने अमल के इंतजार में है ।