बैंगलोर
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शवादी रहा है। उनका आचरण प्रयोजनवादी विचारधारा से ओतप्रोत था। संसार के अधिकांश लोग उन्हें महान राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक के रूप में जानते हैं। महात्मा गांधी ने किसी नए दर्शन की रचना नहीं की वरन् उनके विचारों का जो दार्शनिक आधार है, वही गांधी दर्शन कहलाता है।
ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाले भारतीय, आस्तिक पर जिस प्रकार के दार्शनिक संस्कार अपनी छाप डालते हैं वैसी ही छाप गांधी जी के विचारों पर पड़ी। वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते गये और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती गयी। किसी गंभीर रहस्यवाद में न पड़कर उन्होने यह मान लिया कि शिवमय, सत्यमय और चिन्मय ईश्वर सृष्टि का मूल है और उसने सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन से की है।
वे ऐसे देश में पैदा हुए जिसने चैतन्य आत्मा की अक्षुण और अमर सत्ता स्वीकार की है। वे उस देश में पैदा हुए जिसमें जीवन, जगत सृष्टि और प्रकृति के मूल में एकमात्र अविनश्वर चेतन का दर्शन किया गया है और सारी सृष्टि की प्रक्रिया को भी सप्रयोजन स्वीकार किया गया है। उन्होंने यद्यपि इस प्रकार के दर्शन की कोई व्याख्या अथवा उसकी गूढ़ता के विषय में कहीं विशद और व्यवस्थित रूप से कुछ लिखा नहीं, पर उनके विचारों का अध्ययन करने पर उनकी उपर्युक्त दृष्टि का आभास मिल जाता है।
उनका एक प्रसिद्ध वाक्य था– जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है। यहाँ उन्हें जीवन और जगत का प्रयोजन दिखाई दिया। वे कहतेथे कि जीवन का निर्माण और जगत की रचना शुभ और अशुभ जड़ और चेतन को लेकर हुई है। इस रचना का प्रयोजन यह है कि असत्य पर सत्य की और अशुभ पर शुभ की विजय हो। वे यह मानते थे कि जगत का दिखाई देनेवाला भौतिक अंश जितना सत्य है उतना ही और उससे भी अधिक सत्य न दिखाई देनेवाला एक चेतन भावलोक है जिसकी व्यंजना जीवन है। फलत: वे यह विश्वास करते थे कि मनुष्य में जहाँ अशुभ वृत्तियाँ हैं वहीं उसके हृदय में शुभ का निवास है। यदि उसमें पशुता है तो देवत्व भी प्रतिष्ठित है।
सृष्टि का प्रयोजन यह है कि उसमें देवत्व का प्रबोधन हो और पशुता प्रताड़ित हो, शुभांश जागृत हो और अशुभ का पराभव हो। उनकी दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। वही सत्य, वही शिव और सुंदर है। जो सुंदर है उसे शिवमय और सनमय होना चाहिए। उन्होंने यह माना है कि सदा से मनुष्य अपने शरीर को, अपने भोग को, अपने स्वार्थ को, अपने अहंकार को, अपने पेट को और अपने प्रजनन को प्रमुखता प्रदान करता रहा है। पर जहाँ ये प्रवृतियाँ मनुष्य में हैं, जिनसे वह प्रभावित होता रहता है, वहीं उसी मनुष्य के उत्सर्ग और त्याग, प्रेम और उदारता, नि:स्वार्थता तथा व्यष्टि को समष्टि में लय करके, अहंभाव का सर्वथा त्याग करके विराट में लय हो जाने की दैवी भावना भी वर्तमान है। इन भावों का उद्बोधन तथा उन्नयन दानव पर देव की विजय का साधन है। इसी में अनैतिकता का पराभव और अजेय नैतिकता की जीत है।
इसी के प्रकाश में महात्मा गांधी ने सारी सृष्टि के विकास और मानव के इतिहास को देखा। उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते थे कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। स्वार्थ, दंभ, लोलुपता, अहंकार, भोग की प्रवृत्ति, तृप्ति के लिए किए गए शोषण, प्रभुता तथा अधिकार और अपने को ही सारे सुखों, संपदाओं और वैभव तथा ऐश्वर्य का दावेदार समझने की प्रवृत्ति उनकी दृष्टि में वे पशुभाव हैं जो मनुष्य को पशुता, अमानवता और अनैतिकता की ओर ले जाते हैं। उनकी अहिंसा केवल आदर्श तक ही परिमित नहीं थी वे उसे ही लक्ष्य की संसिद्धि के लिए शक्तिमय साधन के रूप में भी देखते थे अहिंसा को पशुता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करने और उसे अजेय तथा अमोघ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में गांधी जी की प्रतिभा ने अपनी अभूतपूर्व अभिनवता प्रदर्शित की उनकी अहिंसा केवल जीवहिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परमाशक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। अन्याय और अनीति के संमुख मस्तक झुकाना पाप है। पशुता को प्रश्रय मत दो पशुता के सामने सिर न झुकाओ, अनीति और पशुता का सामना अनैतिकता और पशुता के द्वारा मत करो क्योंकि वह पशुता पर पशुता की विजय होगी। पशुता पर देवत्व की विजय तब होगी जब नैतिक और शुभ अस्त्रों से अनैतिक और दानव भाव की पराजय हो। शस्त्र से शस्त्र का, हिंसा से हिंसा का, क्रोध से क्रोध का पराभव नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसा निष्क्रिय नहीं सक्रिय है। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई शासनयत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है।
उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी हिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। शस्त्र का सहारा लेकर अहिंसक वीर की आत्मा का दलन करने में कोई सत्ता, साम्राज्य अथवा शक्ति समर्थ नहीं हो सकती। अहिंसा नैतिकता पर आश्रित है, अत: सत्य है और सत्य ही सदा विजयी होगा। इस प्रकार संसार के सामने अहिंसा के रूप में उन्होंने उज्वल, महान और नैतिक पथ निर्मित किया। जिसने मनुष्यसमाज और जगत को गतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की। वे उन समस्त मान्यताओं, धारणाओं और दृष्टियों के प्रतिवाद हैं जिनका आधार भौतिकवाद है। वे प्रतीक हैं उन समस्त भावों के जो मनुष्य को पशुता की ओर नहीं, देवत्व की ओर बढ़ने की दिशा का संकेत करते हैं।इस अहिंसक पथ को प्रदर्शित करके वे कल्पना करते हैं एक ऐसे लक्ष्य तक पहुँचने की जहाँ अहिंसा के आधार पर ही मनुष्य के जीवन, उसके समाज और उसके जगत की व्यवस्था की रचना की जा सके। वे मानते हैं कि मनुष्य परिवर्तित किया जा सकता है और उसका विकास शुभ्रता की ओर हो सकता है। वे यह भी मानते हैं कि निसर्गत: मनुष्य भला है और भलाई की ओर ही उन्मुख है। वे समझते है कि व्यक्ति से समाज बनता है और व्यक्ति का परिवर्तन समाज को परिवर्तित कर देगा। वे यह भी मानते हैं कि परिवर्तित समाज व्यक्ति के लिए उन संस्कारों की रचना करेगा जिससे नूतन संस्कृति का आविर्भाव होगा। अहिंसा के आधार पर समाज की रचना किस प्रकार हो सकती है इसकी सारी कल्पना उनके चरखे में प्रतिष्ठित है। वे यह स्वीकार करते हैं कि आर्थिक व्यवस्था का व्यक्ति और समाज पर सबसे अधिक प्रभाव होता है और फिर उससे उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती हैं। आज पदार्थों के उत्पादन की प्रणाली वैज्ञानिक यंत्रवाद के कारण केंद्रित हो गई है और वही आधुनिक विश्व की समस्त समस्याओं के मूल में बैठी हुई है। उत्पादन की केंद्रित प्रणाली केंद्रीभूत पूंजी को जन्म देती है जिसके फलस्वरूप समाज के थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का सूत्र आता है। उसकी रक्षा के लिये शक्ति तथा अधिकार और प्रभूता को केंद्रीभूत करने के लिए महती और केंद्रीकृत शस्त्रशक्ति के आधार पर राजनीतिक सत्ता आसन जमाती है। फल होता है समाज के बहुत बड़े अंग का शोषण, दोहन और दलन। इस प्रकार अधिकारवंचित और शोषित जनसमाज आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से मूलत: पराधीन होता है यद्यपि देखने में स्वाधीन दिखाई देता है। तात्पर्य यह है कि शस्त्र और अनीति का सहारा लेकर जो व्यवस्था परिचालित होगी उसमें मानव द्वारा मानव का उत्पीड़न अवश्यभावी है। इस समस्या का हल अहिंसक समाज की रचना है और उस समाज की रचना विकेंद्रीकरण के आधार पर की जा सकती है। उत्पादन की प्रणाली विक्रेंद्रित हो, उत्पादन के साधन विकेंद्रित हो, पूंजी विकेंद्रित हो, समाज जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों की उपलब्धि में स्वावलंबी हो। उसे कि सी का मुखपेक्षी न बनना पड़े। अपनी कमाई का भोग वह स्वयं कर सके और इस प्रकार विकेंद्रित उत्पादन ओर पूंजी के आधार पर बना हुआ समाज किसी वर्गविशेष के स्वार्थ का साधन न बन पाए। फिर जब पूंजी विकेंद्रित होगी और समाज की इकाइयाँ स्वावलंबी बनेंगी तब शस्त्रशक्ति से संपन्न किसी केंद्रीय राजनीतिक सत्ता की आवश्यकता न रहेगी और वह अवस्था होगी जब मानव मानव के दमन, दलन और दोहन से मुक्तहोकर सच्ची स्वतंत्रता का उपभोग करना। चरखा उसी दोहन से मुक्त होकर सच्ची स्वतंत्रता का उपभोग करेगा। चरखा उसी विकेंद्रीकरण के सिद्धांत का प्रतीक है। वह प्रतीक है अहिंसक समाज की रचना के साथ का। वह चुनौती देता है आधुनिक विश्व की सामाजिक व्यवस्थाओं, धारणाओं और मान्यताओं को।
महात्मा गांधी साध्य से अधिक साधन पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि यदि साध्य पवित्र और मानवीय है तो साधन भी वैसा ही शुद्ध, वैसा ही पुनीत और वैसा ही मानवीय होना चाहिए। हम देखते हैं कि साध्य और साधन की समाज पवित्रता पर बल देना और उसका आश्रय ग्रहण करना उनकी साधना रही है। उनके इन मौलिक विचारों ने मानव समाज के विकास के इतिहास में एक अत्यंत उज्वल ओर पवित्र अध्याय की रचना की है। गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँ चे ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरु षों की समस्त उच्चता निहित दिखाई देती हैं।
गांधीजी के द्वारा दिये गये आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक, नागरिकता का उद्देश्य साथ ही साथ सर्वोदय समाज की स्थापना जिसके अंतर्गत श्रम का महत्व होगा, धन का नहीं, स्नेह और सहयोग की भावनाएं होंगी, घृणा एवं पृथकता नहीं, शोषण के स्थान पर परहित एवं संचय की प्रवृत्ति के स्थान पर त्याग की प्रवृत्ति होगी। वर्तमान में शोषण, घृणा, स्वार्थ सिद्धि जैसे कुधारणा के कारण मारकाट, विनाश तथा मानवता का हनन हो रहा है। अतः हम कह सकते हैं कि गांधीजी की सर्वोदय समाज की स्थापना का उद्देश्य आज आवश्यक बन गया है। गांधीजी ने धर्म की शिक्षा का भी बहिष्कार किया। क्योंकि उन्हें भय था कि जिन धर्मों की शिक्षा दी जाती है अथवा पालन किया जाता है वे मेल के स्थान पर झगड़े उत्पन्न करते हैं। वर्तमान स्थिति भी इस बात की समर्थक है।
मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतया: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोंजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गांधी आज क्यों याद आ रहे हैं और गांधीवाद की प्रासंगिकता क्यों महसूस की जा रही है, इसके लिए हमें इतिहास की हाल की कुछ घटनाओं पर नंजर डालनी होगी।
आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के भयावह परिणाम इसके नाम पर विभिन्न देशों में लाखों लोगों की होने वाली मौतें, आतंकवाद के नाम पर होने वाले अरबों डॉलर के खर्च, लाखों बेगुनाहों साथ-साथ हजारों अमेरिकी व उसके सहयोगी देशों के सैनिकों की मौतों तथा इन सबके बीच विश्व में छाई भारी आर्थिक मंदी, बेरोंजगारी एवं मानवाधिकारों के हनन के परिणामस्वरूप उपजने वाले विश्वव्यापी असंतोष के बीच अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में जहां एक ओर राष्ट्रपति बुश की नीतियों का अनुसरण करने वाले जॉन मैकेन चुनाव मैदान में आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में अपनाई जाने वाली आक्रामक नीतियों का समर्थन कर रहे थे, वहीं एक अन्य अश्वेत प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा, महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सत्य, शांति एवं अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए दुनिया में शांति स्थापित करने की बात कर रहे थे। आंखिरकार अमेरिका में नवम्बर 2008 में सम्पन्न हुए राष्ट्रपति चुनावों में बराक ओबामा भारी अन्तर से विजयी घोषित हुए तथा 20 जनवरी को सत्य, अहिंसा तथा शांति की बात करने वाले पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ओबामा ने राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की। अमेरिकी राजनीति में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन के पीछे आंखिर क्या रहस्य था। महाबली, सर्वशक्तिमान तथा ऐसी और न जाने कितनी उपाधियों से पुकारे जाने वाले अमेरिका की जनता आंखिर जॉर्ज बुश के तथाकथित ‘आतंकवाद विरोधी युद्ध’ से ऊब कर क्योंकर शांति कीबात करने वाले ओबामा के समर्थन में एकमत हो गई? इसी ऐतिहासिक परिवर्तन ने एक बार फिर यह प्रश्न अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया है कि कहीं आज के हिंसापूर्ण वातावरण में महात्मा गांधी के आदर्शों की पुन: प्रासंगकिता तो महसूस नहीं की जा रही है? जहां तक ओबामा का प्रश्न है तो ओबामा का जीवन महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित रहा है। राष्ट्रपति चुनाव के समय ओबामा ने अपने सीनेट कार्यालय में महात्मा गांधी की वह तस्वीर लगा रखी थी जिसमें गांधी शांति का संदेश देते हुए नजर आ रहे हैं। ओबामा महात्मा गांधी के उस महान दर्शन के कायल हैं जिसके तहत गांधीजी ने विश्व समाज को किसी की दमनकारी नीतियों का विरोध शांतिपूर्ण तरींके से करने हेतु प्रेरित किया था। ओबामा यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सदैव गांधीजी को अपने आदर्श एवं प्रेरणा के रूप में देखा व समझा है। अपने कार्यालय में गांधी के चित्र लगाने के विषय में ओबामा फरमाते हैं कि मेरे सीनेट दफ्तर में गांधीजी की तस्वीर इसलिए लगी हुई है ताकि मैं यह याद रख सकूंकि वास्तविक परिणाम सिर्फ वाशिंगटन से नहीं बल्कि जनता के बीच से आएंगे। ओबामा कहते हैं कि भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने हेतु रणनीति तैयार करते वक्त गांधीजी को एक विकल्प का चुनाव करना था तथा गांधीजी ने इस विकल्प के रूप में भय के स्थान पर साहस का चुनाव किया। प्रश्न यह है कि वैश्विक परिवर्तन की बात करने वाले तथा अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए बातचीत के माध्यम से समस्याओं का समाधान तलाशने वाले ओबामा तो हिंसा व आतंकवाद के इस विश्वव्यापी दौर में गांधीजी के आदर्शों पर चलते हुए आज के दौर में गांधी के आदर्शों को प्रासंगिक महसूस कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी जरूरी है कि आंखिर महात्मा गांधी ने स्वयं यह प्रेरणा कहां से हासिल की? निर्बल होने के बावजूद अन्याय के विरुद्ध साहस के साथ निर्भय होकर डटे रहना तथा असत्य के समक्ष नतमस्तक न होने जैसे बेशंकीमती गुण गांधीजी ने कहां से सीखे। उन्हें स्वयं यह प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई।
दरअसल सर्वधर्म समभाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले इस महान आदर्शवादी व्यक्ति ने अनेक धर्मों व सम्प्रदायों के इतिहास तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनमें जहां गीता का अध्ययन कर गांधीजी ने कर्म आधारित धर्म के सिद्धान्त पर चलने की जबरदस्त प्रेरणा हासिल की, वहीं इस्लामी इतिहास के करबला हादसे ने भी महात्मा गांधी के जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह थी इरांक के करबला शहर में फुरात नदी के किनारे पर घटित 680 ई0 की वह घटना जिसमें तत्कालीन सीरियाई शासक यजीद ने अपनी विशाल सेना के द्वारा हजरत मोहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन व उनके परिवार के 72 सदस्यों को बेरहमी से कत्ल कर दिया था। दरअसल यदि हुसैन मदीना छोड़कर करबला न आते तो दुस्साहसी यंजीद मदीने में जाकर हंजरत हुसैन व उनके परिजनों व साथियों का कत्ल कर सकता था। परन्तु मदीने की पवित्रता को बचाए रखने के लिए हुसैन ने स्वयं मदीना छोड़ दिया तथा यह जानते हुए भी कि अब हुसैन अपने सभी साथियों के साथ यंजीद की सेना के हाथों कत्ल कर दिए जाएंगे फिर भी उन्होंने करबला की ओर रुंख किया। क्रूर, शक्तिशाली, दुष्कर्मी, अहंकारी, भ्रष्ट तथा चरित्रहीन शासक यजीद के आगे घुटने टेकने, समझौता करने अथवा उसकी कोई भी बात मानने के बजाए हंजरत हुसैन ने अपने परिजनों के साथ सुर्खुरु होकर शहादत हासिल की। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्लाम में आज जो कुछ भी सकारात्मक पहलू नंजर आते हैं उसका विस्तार विश्वव्यापी दिखाई देता है, उसमें सबसे बड़ा किरदार करबला में दी गई हुसैन की शहादत का ही है। जिस प्रकार हुसैन इस्लाम की रक्षा हेतु 72 व्यक्तियों का काफिला लेकर मदीने से करबला के लिए रवाना हुए थे, उसी घटना से प्रेरणा लेते हुए अपने पहले नमक सत्याग्रह में गांधीजी ने भी अपने साथ विभिन्न वर्ग व समाज के 72 लोगों को ही चुना। गांधीजी का मानना था कि विश्व में इस्लाम के विस्तार का कारण मुस्लिम शासकों की तलवारें नहीं बल्कि हुसैन जैसे महान संतों की कुर्बानी है। गांधीजी हजरत हुसैन की कुर्बानी से इस हद तक प्रेरित थे कि उनका मानना था कि यदि उनके पास भी हंजरत इमाम हुसैन जैसे मात्र 72 सिपाहियों की सेना होती तो वे भी भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई मात्र 24 घंटों में जीत सकते थे। उनका यहां तक कहना था कि यदि भारत एक सफल राष्ट्र बनना चाहता है तो इस देश को इमाम हुसैन के पद्चिन्हों पर चलना चाहिए।
गांधीजी अहिंसा के पुजारी होने के नाते भली-भांति समझ चुके थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का स पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजीभी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी। उदाहरण के तौर पर 1914 से लेकर 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गांधीजी ने अहिंसा की आवांज बुलंद की। इसी प्रकार 1939 से 1944 तक चलने वाले द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण हिंसा के समय भी गांधीजी अहिंसा परमो: धर्म: जैसे शांति सूत्र का प्रचार व प्रसार करते दिखाई दिए। गांधीजी हथियारों के विरुद्ध हथियार प्रयोग करने के बजाए हथियारों के विरुद्ध विचारों का प्रयोग करने की बात कहते थे। उन्होंने अन्याय व असमानता के विरुद्ध युद्ध करने का एक ऐसा इन्सानी तरींका समाज को दिया था जिसमें किसी को अपना दुश्मन बनाने की जरूरत नहीं पड़ती थी और न ही हथियार उठाने की आवश्यकता थी। वे समाज को अपने विचारों से सहमत करने तथा उसका हृदय परिवर्तन करने में विश्वास रखते थे। द्वितिय विश्व युद्ध में हुई भयंकर जान व माल की तबाही के बाद भी जब युद्ध से कोई नतीजा हासिल नहीं हुआ तब आंखिरकार संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 में गांधीजी के ही सिद्धान्तों के अनुरूप यह घोषणा की कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। अत: बातचीत के माध्यम से ही सभी मामले सुलझाए जाने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के इसी शांति प्रस्ताव पर संघ के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए थे।
अमेरिका सहित लगभग सारी दुनिया इस समय आर्थिक मंदी की भारी चपेट में है। ऐसे विषयों को लेकर भी गांधीजी पूरी तरह सचेत व बाखबर रहा करते थे। बड़े उद्योगों के प्रबल विरोधी गांधीजी बढ़ते हुए उद्योगवाद से बहुत चिंतित थे। उद्योगवाद की इस व्यवस्था को वे शैतानी व्यवस्था का नाम देते थे। गांधीजी का मानना था उद्योगवाद की व्यवस्था मनुष्य द्वारा मनुष्य का ही शोषण किए जाने पर आधारित व्यवस्था का नाम है। उद्योगवाद की व्यवस्था में विषमता तो बढ़ेगी परन्तु इस व्यवस्था में न्याय नहीं हो सकेगा। आज भारत जैसे देश में बढ़ती हुई बेरोंजगारी तथा बड़े एवं आधुनिक उद्योगों की भरमार ने यहां भी गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता की याद दिला दी है। देश में जहां कहीं भी लघु उद्योग, हस्त शिल्प, करघा उद्योग तथा कामगारों से जुड़े ऐसे अन्य तमाम उद्योग बंद पड़े हैं, वहां इससे जुड़े लोग बुरी तरह प्रभावित हैं तथा जहां कहीं भी ऐसे लघु उद्योग फल फूल रहे हैं, वहां का गरीब मजदूर, आम आदमी तथा कामगार वर्ग अपनी दो वक्त क़ी रोटी का प्रबंध कर पाने में सक्षम है।
दरअसल लघु उद्योग के पक्ष में गांधीजी की सोच के पीछे मुख्य कारण यही था कि गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों की बात ही सोचा करते थे। वे यह भली भांति जानते थे कि समाज में परिवर्तन, विकास या प्रगति के लिए यहां तक कि सामाजिक क्रांति लाने तक के लिए गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान का मिलना बहुत जरूरी है। वे यह भली भांति समझते थे कि एक नंगा, भूखा तथा बिना झोपड़ी का व्यक्ति देश की स्वतंत्रता अथवा स्वतंत्रता संग्राम के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकता। अत: देश की स्वतंत्रता की पूरी लड़ाई के केंद्र में गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों के विषय में ही सोचा करते थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि गरीबों के हितों को लेकर कम्यूनिस्टों के विचार कांफी हद तक गांधीजी के विचारों से भी मेल खाते थे। यहां तक कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना र्स्वस्व झोंक चुके क्रांतिकारी लोग भी ंगरीबों के हितों की रक्षा की ही बातें करते थे। यही वजह थी कि स्वतंत्रता की लड़ाई के समय सबसे प्रमुख नारा यही बुलंद हुआ कि धन और धरती का बंटवारा होकर रहेगा। गरीबों के उत्थान के विषय को गांधीजी ने अपने दिल से किस हद तक लगा लिया था, यह बात उनके त्याग से आंकी जा सकती है। गांधीजी ने बैरिस्टर की पढ़ाई पास करने के बाद जब दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत शुरु की, उस समय कुछ ही समय में उनकी गिनती दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध वकीलों में होने लगी। कहा जा सकता है कि यह शोहरत भारत के उस युवा प्रतिभाशाली, ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्ति को मिल रही थी जोकि कुछ ही वर्षों के बाद भारत का भाग्यविधाता होने वाला था। गांधीजी 1905 के आसपास के दौर में अफ्रीकी अदालत में अपने अदालती जौहर दिखाकर लगभग 5 हंजार पाऊंड वार्षिक की आमदनी कर लिया करतेथे। निश्चित रूप से यह आज के समय के हिसाब से बहुत बड़ी रंकम कही जा सकती है। क्योंकि उस समय मात्र एक पाऊंड में सात तोला सोना खरीदा जा सकता था। कहा जा सकता है कि आमदनी के लिहांज से गांधीजी न केवल एक सफल बल्कि एक सम्पन्न वकील भी थे। जाहिर है उस समय उनके पास ठाठ-बाट, ऐशो-आराम, किसी चींज की कोई कमी नहीं थी। परन्तु हकीकत तो यह थी कि सब कुछ होने के बावजूद इस महान आत्मा के भीतर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की एक ज्वाला धधक रही थी। और यह ज्वाला असमानता व अन्याय के विरुद्ध आवांज उठाने की थी। अफ्रीका में उस समयव्याप्त रंगभेद को समाप्त करने की तथा भारत की गुलामी की जजीरों से मुक्त कराने की ज्वाला थी। गांधीजी की इसी सोच ने उन्हें अपने कोट पैंट, टाई सूट त्यागने तथा गरीबों के बीच रहकर गरीब लोगों की तरह तन पर एक धोती लपेटने की प्रेरणा दी। और तभी गांधीजी ने कहा था कि जब तक देश के ंगरीबों को सब कुछ नहीं मिल जाता, तब तक मैं कुछ भी नहीं ग्रहण करूंगा।
गांधीजी भली भांति यह जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा देश के गांवों में बसती है। अत: जब तक गांव विकसित नहीं हो जाते, तब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद गांधीजी ने पंडित नेहरु से यह कहा भी था कि अब देश के गांवों की ओर देखिए। देश के आर्थिक आधार के लिए गांवों को ही तैयार करना चाहिए। गांधीजी का विचार था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ दूसरा स्तर भी बचाए रखना जरूरी है और यह दूसरा स्तर है ग्रामीण अर्थव्यवस्था का। स्वतंत्रता के पश्चात तत्कालीन सत्ताधीशों ने गांधीजी की इस बात को कितना महत्व दिया और कितना नहीं, यह एक अलग विषय है। परन्तु मनमोहन सिंह के रूप में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री कहीं न कहीं गांधीजी की भाषा बोलते जरूर दिखाई दे रहे हैं। मनमोहन सिंह कई बार यह दोहरा चुके हैं तथा राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कई योजनाएं भी घोषित कर चुके हैं जिनका संबंध गांव की ओर ध्यान दिए जाने से है। भारत सरकार द्वारा ऐसी नीतियों के कार्यान्वन से यह पता चलता है कि यहां भी एक बार फिर गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता ही सिर चढ़कर बोलती हुई दिखाई दे रही है।
गांधीजी देश के छोटे बच्चों को भी आत्म निर्भर बनाने की शिक्षा देना चाहते थे। इसीलिए वे श्रमदान करने व कराने के पक्षधर थे। पहसे के समय में बांगबानी का एक विशेष ‘पीरियड’ हुआ करता था। इस दौरान कक्षा के सभी बच्चे स्कूल के बंगीचे में जाते तथा गांव के किसानों की ही तरह बंगीचे में खेती का पूरा काम करते। यहां तक कि रहट चलाने जैसा मेहनत करने वाला काम भी बच्चों को सामूहिक रूप से करना पड़ता था। यह शिक्षा प्रत्येक स्कूलों मेंमहात्मा गांधी द्वारा दी गई सीख तथा उनस प्राप्त प्रेरणा के अनुरूप ही दी जाती थी। इसका मकसद यह था कि बच्चे आत्म निर्भर रहें, श्रमदान सीखें और मेहनत करने से घबराएं या हिचकिचाएं नहीं तथा आवश्यकता पड़ने पर स्वयं खेती कर सकें, पुलों, बांधों, तालाबों, सड़कों व गलियों आदि का श्रमदान के द्वारा निर्माण कर सकें। परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अब श्रमदान की परिकल्पना ही लगभग समाप्त हो चुकी है। बांगबानी की जगह कंप्यूटर शिक्षा ने ले ली है। आधुनिक शिक्षा के नाम पर मनुष्य भले ही विकास की वर्तमान राह पर अग्रसर क्यों न हो परन्तु शारीरिक रूप से आज का छात्र निश्चित रूप से आलसी होता जा रहा है। क पयूटर शिक्षा एवं वर्तमान आधुनिक विज्ञान प्रौद्योगिकी ने भले ही एक ‘माऊस’ के माध्यम से पूरी दुनिया को उसकी मुट्ठी में ही क्यों न कर दिया हो परन्तु दुनिया को मुट्ठी में करने की बातें करने वाला यही बच्चा निश्चित रूप से अपने आस-पास की बुनियादी जरूरतों से अनजान तथा बेपरवाह प्रतीत होता है। अर्थात् श्रमदान करने की मानसिकता का अभाव आज के दौर में समाज को पूरी तरह से सरकारी व्यवस्थाओं पर आधारित बनाता जा रहा है। और यहां यह कहने की जरूरत ही नहीं कि सरकारी मशीनरी का अपना क्या हाल है।
गांधीजी के बताए हुए श्रमदान पर जब बात चली है तो एक बात यह बतानी भी जरूरी है कि भारत में गैर सरकारी तौर पर कई ऐसे संगठन काम कर रहे हैं जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुल, सड़कें तथा बांध आदि बनाने में महारत हासिल है। लेकिन भारत जैसे देश की विशालता के लिहांज से देश के आम लोगों को श्रमदान के प्रति जितना आकर्षित होना चाहिए था, उतना नहीं है। मंजे की बात तो यह है कि देश की सरकारी मशीनरी भी गांधीजी के इस फार्मूले की पूर्णतय: अवहेलना नहीं कर पाती। यही वजह है कि अक्सर मीडिया के माध्यम से श्रमदान में भाग लेते हुए विशिष्ट लोगों के चित्र कभी कभार प्रकाशित व प्रसारित होते दिखाई देते हैं, जिसमें कोई विशिष्ट नेता या अधिकारी प्रतीकात्मक रूप से श्रमदान कर अपनी फोटो खिंचवाता दिखाई देता है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश की एक गैर कांग्रेसी सरकार ने गांधीजी के श्रमदान के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए एक बहुत बड़ी राज्यव्यापी योजना की शुरुआत की है। राज्य में बढ़ते जा रहे जल संकट के परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने महात्मा गांधी के श्रमदान सिद्धान्त पर अमल करते हुए भोपाल की एक प्रसिद्ध झील की खुदाई शुरु की। बड़े पैमाने पर चले इस श्रमदान कार्यक्रम में राज्य के मुख्यमंत्री सहित वरिष्ठ अधिकारी, कलाकार, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, अनेकों सामाजिक संगठन तथा सभी धर्मों व स प्रदायोंके आम लोग शामिल हुए। राज्य सरकार ने इस योजना के अन्तर्गत प्रदेश की कई ऐसी झीलों व तालाबों को चिन्हित किया है जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुन: उपयोग में लाने योग्य बनाया जाना है। बेशक इस योजना में सरकारी मशीनरी भी पूरा साथ दे रही है। परन्तु श्रमदान किए जाने की धारणा ही इस बात की स्वयं साक्षी है कि हो न हो गांधीजी की याद न सिंर्फ हमारे देश के लोगों को बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सारी दुनिया को सदैव आती रहेगी तथा गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता हमेशा ही हम सभी को महसूस होती रहेगी।
अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्धान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्य—‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है।
गीता से अत्यधिक प्रभावित गांधीजी ने निश्चित रूप से गीता से ज्ञान व भक्ति की प्रेरणा हासिल की। परन्तु इस ग्रन्थ के माध्यम से उन्हें निष्काम कर्म की महिमा का जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। गीता के ‘कर्म करो और परिणाम की चिंता मत करो’ की सीख देकर गांधीजी दुनिया को यह समझाना चाहते थे कि वास्तव में किसी भी मनुष्य को यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि कर्म करने वाला व्यक्ति किस लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना कर्म कर रहा है। परन्तु मात्र लक्ष्य को ही केंद्र बिंदु मानकर यदि कर्म किया जाए तो कर्ता की स्थिति विषयान्ध जैसी हो जाती है। ऐसी स्थिति में वही कर्ता, कर्म करने की क्रिया को नजर अंदाज कर केवल और केवल लक्ष्य को साधने अथवा फल की प्राप्ति मात्र की ही दिशा में अंधा होकर चल पड़ता है। इसके लिए कोई भी रास्ता अपनाने से नहीं हिचकिचाता इस सोच का परिणाम क्या होता है, यह आज दुनिया के किसी भी क्षेत्र में विशेषकर राजसत्ता से जुड़े क्षेत्रों में देखा जा सकता है।आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशत: सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं। बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़े मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोंजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस ‘शार्टकट’ अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में साप्रदायिकता फल फूल रही है। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय साप्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्य भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं साप्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। अब तो भारत के एक राज्य विशेष के कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग पूरे उत्तर भारतीयों के विरुद्ध नफरत के बीज बो रहे हैं। दरअसल यह इनके द्वारा किया जाने वाला कर्म नहीं है। बल्कि राज सत्ता रूपी फल फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विषयान्ध जैसी हो चुकी है। और एक विषयान्ध व्यक्ति नीतियों, सिद्धान्तों यहां तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य कोअर्जित करने के लिए निम् से निम्न स्तर तक के फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।
बड़े दु:ख के साथ यह भी कहना पड़ता है कि गांधीजी के सिद्धांतों, उनके दर्शन तथा उनके मानवतापूर्ण विचारों की सबसे अधिक धज्जियां भारत में सक्रिय गांधीदर्शन की विरोधी विचारधारा रखनेवाली साम्प्रदायिक ताक़तों द्वारा उड़ाई जा रही है। चिराग़ तले अंधेरा की कहावत दरअसल चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। स्वतंत्र भारत में सबसे पहले व सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्ति की हत्या भी सर्वप्रथम गांधीजी के ही रूप में हुई थी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि सभी समुदायों के लोगों को समान नज़रों से देखनेवाले गांधीजी दरअसल सत्ता अथवा बहुमत को केन्द्र में रखकर कोई निर्णय क़तई नहीं लेते थे। शांति, प्रेम, सद्भाव, सत्य एवं अहिंसा मानव प्रेम एवं सर्वधर्म समभाव उनके दर्शन एवं विचारों की बहुमूल्य पूंजी थी। परन्तु साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले तत्वों को शायद गांधी के सर्वधर्म समभाव की नीति अच्छी नहीं लगी। आखिरकार साम्प्रदायिक के जह़र में डूबे एक धर्मान्ध व्यक्ति ने जोकि स्वयं हिंदू समुदाय से ही था तथा स्वयं को हिंदू समुदाय का शुभचिंतक समझता था, ने उस महान आत्मा के गोली मारकर शहीद कर दिया। परन्तु अपनी शहादत के बाद गांधी के विचार दरअसल और भी सिर चढ़कर बोलने लगे। भले ही उस महान आत्मा के आलोचक आज दुर्भाग्यवश भारतवर्ष में ही सबसे अधिक क्यों न हो परन्तु दुनिया के किसी भी देश से भारत की यात्रा पर आनेवाला कोइ भी राष्ट्र प्रमुख अथवा राष्ट्राध्यक्ष ऐसा नहीं है जो महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्ति के समक्ष नतमस्तक होने, उनकी दिल्ली स्थित समाधि राजघाट पर न जाता हो। आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधीजी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी। अत: यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि गांधीजी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्धांत कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं तथा रहती दुनिया तक सदैव प्रासंगिक रहेंगे।