एक दिन माँ के नाम…..


प्रो.  उर्मिला परवाल 

माँ की उपसिथति हमारे जीवन में हवा और धूप की उपसिथति के समान है, माँ अपने जीवन का हर दिन हमारे नाम कर देती है, ऐसे में एक दिन माँ के नाम अच्छा है!!!!!

माँ का जिक्र छिड़ने पर हर व्यकित के चेहरे पर अनायास ही झट से एक आदरभरा कोमल भाव तैरने लगता है, माँ ममता की वह छाँह है जिसमें व्यकित हमेंषा सुकून पाता है, माँ के षब्द, उनकी डांट, उनकी सलाह, उनकी प्रेरणा, उनके संस्कार और उनकी हिम्मत बच्चों की धरोहर होती है।

वह बच्चों की जिन्दगी की अंधेरी कोठरी में दिये के उजाले के समान पथ-प्रदर्षक होती है वह बच्चों का मार्गदर्षन करती है ताकि वो दुनिया की भीड़ में तमाम प्रलोभनों और गलत लोगों को पहचान कर जीवन में सही दिषा में आगे बढ़ सके। माँ के प्यार में कोर्इ षर्त नहीं होती। वह बिना शर्त, नि:स्वार्थ और गहरा प्यार करती है। वह पहली गुरू होती है और बच्चे के विकास पर उसका असर बहुत ज्यादा होता है। हर इंसान की पहली आदर्श उसकी माँ ही होती है।

पिता अगर आकाश  है, छत हैं तो माँ वह कील है जिस पर धरती टिकी होती है। माँ के होने से यह जहान सुंदर, कोमल, सुखद और चिंतारहित स्थान बन जाता है। दुनिया अगर मरूस्थल है तो माँ नखलिस्तान और षीतल निर्झर है, माँ इंसान के लिए दु:खहर औशधि है जिसके समक्ष बच्चे अपना हर दर्द, हर ज़ख्म प्रकट कर सकते है वह ऐसी मित्र है जिससे बच्चे बिना किसी भय के अपना सब कुछ सांझा कर सकते हैं। माँ नि:स्वार्थ भाव से अपनी भूमिका निभाती है, वह बच्चे की परवरिष करते-करते खुद उसकी दुनिया में चली जाती है बच्चे की पसंद-नापसंद को वह खुद से जोड.कर देखने लगती है और कइ बार तो ऐसा भी हो जाता है कि वो बच्चों की पसंद के रंग में रंग जाती है। अपनी नींद को त्याग देना ताकि बच्चा चैन से सोए यह एक माँ ही कर सकती है। एक फिल्मी गीत की पंकितयाँ यहाँ कितनी सटीक लगती है-

ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…!!!!!

विरोध और मतभेद हर जगह मिलते है, प्रषंसा और आलोचना तो एक ही सिक्के के दो पहलू है। कही-कही लिखा हुआ पढ़ने में आ जाता है ये जुमला कि-
जींस पहनने वाली, माँ का आँचल कहां से लाएगी……!!!!!

ये जुमले लिखने वाले, वो कहानी शोकिया तौर पर पढ़ते है शायद, जिसमें एक निर्धन माता-पिता संघर्शमय जीवन व्यतीत कर, खून-पसीना एक करके अपनी संतान को षिक्षित कर, एक काबिल इंसान बनाते है, और वही संतान एक दिन उनका परिचय अपने सहयोगियों के समक्ष माता-पिता के रूप में कराने में षर्म महसुस करती है इसलिए अपना नौकर बताकर परिचय करवाती है।

एक तरफ तो बच्चें चाहते है कि हमारी माँ आधुनिक हो, जमाने के साथ चले ताकि वे गर्व से उनका परिचय अपने सखा-संबंधियों से करा सके और जब आपकी माता आपके अनुसार खुद को साबित कर देती है, तो इस तरह के जुमले लिखकर सम्मानित करती है संतति। वाह…!!!!!


ऐसे कथन कहने और लिखने वाले जरा इस बात पर विचार करें कि उन्हें आखि़र चाहिए क्या…………???? और अपना नजरिया बदले। इस समय एक किस्सा याद आ रहा है- किसी ने प्रश्न  किया भगवान से-

क्या अंतर है ईश्वर, अल्लाह और वाहेगुरू में ???
तो उसे जवाब मिला-
वही अंतर है जो माँ, अम्मी और बेबे में होता है।

तो मेरा भी यही मानना है कि ऊपरी रंग, रूप कुछ भी रहे माँ तो माँ ही होती है। चाहे वह जींस पहने या साड़ी उससे फर्क नहीं पड़ता। जींस वाली माँ का अदृष्य आंचल भले दुनिया न देख पाए पर उसकी संतति देख भी लेती है और उस आंचल की छाया भी पा लेती है। माँ अपनी संतति से स्नेह दिल से ही नहीं आत्मा से करती है। बेटा हो या बेटी माँ की आत्मा में बसते है। किसे अपनी माँ प्रिय नहीं होती। जिस तरह माँ के लिए संतान अनमोल होती है, उसी तरह संतान के लिए भी माँ उससे कहीं कम नहीं होती। माँ ने जीवन में जो भी अपने बच्चों के लिए किया है, उसका ऋण बच्चें अपने जीवन में कभी नहीं चुका सकतें……प्यार तो खैर हर बच्चा अपनी माँ से करता है पर मैं अपनी माँ की प्रषंसक हूँ। उनके बारे में जितना लिखूं कम ही होगा, शब्दों में जिसे बांध ना पाऊ ये ऐसा एहसास है….. माँ का परिचय देने के लिए मुझे सदैव यही पंक्तियाँ सटीक लगती है-

मुझे मेरे गुनाहों की कुछ इस तरह सज़ा देती है….
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है…..!!

आज का माहौल देखती हूँ तो दु:ख होता है कि क्यों आज की पीढ़ी माता-पिता को बोझ समझती है। वृद्धाश्रम, विधवाश्रम असितत्व में क्यों है ??? गहनता से विचार करें तो पाते है कि हमारी सनातन संस्कृति में माता को सर्वोपरि बताया गया है और हमारा धर्म भी हमें यही सिखाता है कि माँ भगवान का रूप होती है, परन्तु हमारे समाज और सभ्यता को पाष्चात्य संस्कृति रूपी दीमक खोखला कर रही है ये सब उसी का परिणाम है।