भगवान महावीर के सिद्धान्तों की प्रासंगिकता



प्रो. उर्मिला पोरवाल सेठिया

बैंगलौर

भगवान महावीर, (जैन धर्म के संस्थापक और 24वे एवं अंतिम जैन तीर्थंकर) के जन्म के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला जैन अनुयायियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है- महावीर जयंती। महावीर स्वामी द्वारा दिए गये उपदेश  हो या श्लोक,पत्थर पर खुदे आलेख हो या चित्रित मुद्राऐ, पवित्र मंत्र हो या भावपूर्ण भजन जैन अनुयायियों के लिए तो महत्वपूर्ण है ही साथ-साथ उनके जीवन जीने के सिद्धांत भी है, वे सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह ,दान, सेवा, पूजन, व्रत ,साधना, प्रार्थना आदि का अनुसरण करते हुए जीवन यापन करते है, और बड़ी धूम से जयंती मनाते है। कहा जाता है, कि भगवान महावीर बिहार प्रदेश  के ग्राम कुण्डला के राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिषला के पुत्र थे, जिन्होंने 30 वर्ष  की अवस्था तक राजसी एवं सांसारिक जीवन यापन किया तत्पश्चात आध्यात्मिक स्वतंत्रता और जीवन के सच्चे लक्ष्य की तलाश में अपने सिंहासन और  परिवार का त्याग करके तपस्वी बन गए, और 72 वर्श की आयु में निर्वाण प्राप्त किया।

विचारणीय प्रश्न यह है कि वर्तमान समय में भगवान महावीर के सिद्धान्त कहा तक उपयोगी है? क्या आज भी उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर व्यक्ति अपना जीवन सुखमय बना सकता है? जवाब में मतभेद मिलेंगे क्यूं कि आदर्शवादीता हाँ कहलवायेगी और अवसरवादीता ना। परन्तु मेरा मत सिद्धान्तों के पक्ष में है कि महावीरजी के समस्त सिद्धान्त, मानव विकास एवं कल्याण में सदैव पथ-प्रदर्शन करते रहेगें। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग के दौर में भगवान महावीर की प्रासंगिकता ओर बढ़ गई है, इसलिए तो भगवान महावीर को पर्यावरण पुरुष और अहिंसा विज्ञान को पर्यावरण का विज्ञान कहा जाता है।

भगवान महावीर के आदर्श वाक्य अथवा सिद्धान्तों की बात करें तो-उनका कहना था कि मित्ती में सव्व भूएसु- अर्थात सब प्राणियों से मेरी मैत्री है। वे मानते थे कि जीव और अजीव की सृष्टि में जो अजीव तत्व है अर्थात मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति उन सभी में भी जीव है अतः इनके अस्तित्व को अस्वीकार मत करो। इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का मतलब है अपने अस्तित्व को अस्वीकार करना। स्थावर या जंगम, दृश्य और अदृश्य सभी जीवों का अस्तित्व स्वीकारने वाला ही पर्यावरण और मानव जाति की रक्षा के बारे
में सोच सकता है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः” की मंगल भावना, अहिंसा के अमूल्य विचार है, जो विश्व में शांति एवं सद्भाव स्थापित कर सकते है। महावीरजी ने ’अहिसा’ और पृथ्वी के सभी जीवों पर दया रखने का संदेश दिया,और कहा- जीव हत्या पाप है। महावीरजी का सदैव यह नारा रहा जियो और जीने दो, इसे उन्होने मानव धर्म का मूलमंत्र बताया और कहा कि इस एक मंत्र से, विश्व की सभी समस्याओं का निराकरण हो सकता है और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक भेदभाव और शोषण से मुक्ति मिल सकती है। “ साथ ही जीव हत्या को रोकने के लिए जन-जन को समझाया कि मानव की करतूत के चलते आज हजारों प्राणियों की जाति-प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। सिंह पर भी संकट गहराता जा रहा है। महावीरजी ने मांसाहार का विरोध कर, शाकाहार को हर दृष्टि से लाभप्रद बताया।

इतिहास के पनने पलट कर देखा जाए तो कई उदाहरण मिल जाऐंगे-महात्मा गॉंधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, विनोबाभावे जैसे महान व्यक्ति भी महावीरजी के सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित थे। नेहरू जी ने तो विश्व शांति के लिये पंचशील के सिद्धान्तों की रचना में जैन सिद्धान्तो को प्राथमिकता दी। ओर तो ओर प्रसिद्व दार्शनिक, जार्ज बर्नाड शां पक्के शाकाहारी थे। उनका कहना था, मेरा पेट, पेट है, कोई कब्रिस्तान नहीं, जहां मुर्दो को स्थान दिया जाय। वे जैन धर्म से इतना अधिक प्रभावित थेकि अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करते हुए, उन्होने कहा, यदि मेरा पुर्नजन्म हो, तो भारत में हो और जैन कुल में हो।

यहा विचारणीय है कि यदि मानव धर्म के नाम पर या अन्य किसी कारण के चलते जीवों की हत्या करता रहेगा तो एक दिन धरती पर मानव ही बचेगा और वह भी आखिरकार कब तक बचा रह सकता है? मांसाहारी लोग यह कुतर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या बढ़ती जाएगी और वे मानव के लिए खतरा बन जाएंगे। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण कितनी प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। ऐसा लगता है कि धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है, जो शेर, सियार, बाज, चील सभी के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि उसके पास भोजन के और भी साधन हैं। जंगल के सारे जानवर भूखे-प्यासे मर रहे हैं। मेरी नजर में अधर्म है वो धर्म, जो मांस खाने को धार्मिक रीति मानते हैं। हालांकि वे और भी बहुत से तर्क देते हैं, लेकिन उनके ये सारे तर्क सिर्फ तर्क ही हैं उनमें जरा भी सत्य और तथ्य नहीं है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो भी, मांसाहार शरीर एवं मन दोनों के लिये प्राण घातक है और मनुष्य में हिंसक प्रवृति को जन्म देता है। उच्च रक्त-चाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसी गंभीर बीमारियाँ विकसित होती हैं। एक ओर जीव हत्या तो दूसरी ओर वृक्ष के हत्यारे काटते जा रहे हैं पहाड़ एवं वृक्ष और बनाते जा रहे हैं कांक्रीट के जंगल। तो एक दिन ऐसा भी होगा, जब मानव को रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगल से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती आग की तरह जलने लगेगी। जंगल में घूमने और मौज करने के वो दिन अब सपने हो चले हैं। महानगरों के लोग जंगल को नहीं जानते इसीलिए उनकी आत्माएं सूखने लगी हैं।

रूस और अमेरिका में वृक्षों को लेकर पर्यावरण और जीव विज्ञानियों ने बहुत बार शोध करके यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्षों में भी महसूस करने और समझने की क्षमता होती है। महावीरजी की तो मान्यता थी कि वृक्ष में भी आत्मा होती है, क्योंकि यह संपूर्ण जगत आत्मा का ही खेल है। वृक्ष को काटना अर्थात उसकी हत्या करना है। धरती पर वृक्ष है ईश्वर के प्रतिनिधि, वृक्ष से मिलती शांति और स्वास्थ्य, चेतना जागरण में पीपल, अशोक, बरगद आदि वृक्षों का विशेष योगदान रहता है। ये वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसीलिए इस तरह के सभी वृक्षों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित कर दिया जाता था जिससे वहां व्यक्ति बैठकर ही शांति का अनुभव कर सकता है।

महावीरजी ने सर्वाधिक पौधों को अपनाए जाने का संदेश दिया है। सभी 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग 24 पौधे हैं। बुद्ध और महावीर सहित अनेक महापुरुषों ने इन वृक्षों के नीचे बैठकर ही निर्वाण या मोक्ष को पाया। सत्य’ महावीरजी द्वारा बताया गया, महत्वपूर्ण सूत्र है। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का चिन्तन, मनन और विचार सत्य पर आधारित होना चाहिये।

सत्य ही मानव को जीव से शिव,नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा बनने की शक्ति देता है। आज मनुष्य के स्वभाव में, व्यवहार में, बोलचाल में, कार्यशैली में झूठ का स्थान है। राजनीतिज्ञ, शासक, व्यापारी सभी वास्तविकता से हटकर, असत्य के सहारे, अपनी स्वार्थ पूर्ति में लगे हैं और देश को गर्त में धकेल रहे हैं। सत्य जोकि हमारा स्वभाविक एवं सहज गुण है, जो स्वतः ही प्रस्फुटित होता है, उसे हम त्याग रहे हैं। आज का व्यक्ति स्वयं क¨ प्रय¨गषील एवं अवसरवादी कहता है अ©र ऐसे में उसके जीवन में सत्य के लिए क¨ई जगह नहीं रह जाती क्य¨ंकि अगर सत्य की बात करें त¨ अवसर देखकर प्रय¨ग करने की प्रवृŸिा जहाँ रहती है वहा सच रह ही नहीं सकता। आज प्रत्येक व्यक्ति में पषुता घर कर गई है कहते है ना हिंसक पषु ह¨ते है, त¨ अहिंसा का अस्तित्व भी लुप्तप्राय है। ओर षेश समस्त सिद्धांत व्यापार-व्यवसाय एवं प्रषंसा प्राप्ति के साधन के रूप में प्रयुक्त ह¨ रहे है, धार्मिक कर्मकाण्ड तो स्वार्थसिद्धि के उपादान बनते जा रहे है। महावीरजी का अनेकान्तवाद अथवा स्यादवाद का सिद्धांत भी सत्य पर आधारित है। महावीर ने कहा था, किसी भी वस्तु या घटना को एक नहीं वरन् अनन्त द्वष्टिकोणों से देखने की आवश्यकता है। आज समाज में झगड़े, विवाद आदि एंकागी दृष्टिकोण को लेकर होते हैं, यदि विवाद के समस्त पहलुओं को समझा जाय, मिथ्या अंशों को छोड़, सत्याशों को पकड़ा जाय तो सम्भवतः संघर्ष कम हो जाय। वैज्ञानिक आईस्टीन का सापेक्षवाद महावीरजी के अनेकान्तवाद पर ही टिका है।

आज के युग में, मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता है, महावीरजी के अपरिग्रह के सिद्वान्त को समझने की। संग्रह अशांति का अग्रदूत है, विनाश, विषमता तथा अनेक समस्याओं को जन्म देता है। कार्ल मार्क्स का साम्यवाद इस रोग की दवा नहीं, क्योकि हिंसा से हिंसा शांत नहीं होती । महावीरजी का अपरिगृह का विचार ही, इसकी संजीवनी है जो अमीर गरीब की दूरी कम कर सामाजिक समता स्थापित कर सकती है। महावीरजी के उपदेशों में, यदि अचैर्य के सिद्वान्त का अनुकरण किया जाय तो, आज विश्व में व्याप्त भ्रष्ट्राचार व कालेधन पर अंकुश लगाया जा सकता है।

महावीरजी ने, स्त्री वर्ग के लिए भी उदारता के विचार व्यक्त किए जिसमें उन्होने स्त्रियों को पूर्णतः स्वतंत्र और स्वावलम्बी बताया। आज के परिप्रेक्ष्य में देखे तो स्त्रियों के समान अधिकार एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता हेतु महावीरजी के विचार आज भी सार्थक प्रतीत होते हैं। महावीरजी द्वारा बताये जैन धर्म के सूत्रों में, एक महत्वपूर्ण सूत्र ब्रहचर्य भी है। आज के भोगवादी पाश्चात्य प्रभावी युग में इससे बढ़कर ओर कोई त्याग नहीं । इससे हम बढ़ती जनसंख्या के दुष्प्रभवों से बच सकेगें। निर्धनता, बेरोजगारी, भिक्षावृति, आवास, निवास, अपराध, बाल अपराध आदि समस्याओं का निराकरण होगा तथा महामारी को विश्व में विकराल रूप धारण करने से भी रोक पायेगें।

महावीरजी ने तन-मन की शुद्धि तथा आत्म बल बढ़ाने हेतु, साधना एवं तपश्चर्या पर बल दिया। आज के भौतिकवादी युग में जहां खानपान की अशुद्धता एवं अनियमितता है, और जीवन तनावयुक्त है, ऐसे में महावीरजी द्वारा बताई तप, त्याग एवं साधनामय जीवन-शैली ही समस्याओं का समाधान है।

इस प्रकार देखे तो देष का हर पक्ष-सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अ©र आर्थिक सभी भ्रश्टाचार से ग्रसित है। वर्तमान समय में भगवान महावीर के सिद्धान्त अप्रासंगिक है। इस बात क¨ सिद्ध करने के लिए प्रतिदिन घटित ह¨ती घटनाएँ ही पर्याप्त है। लेकिन उम्मीद हम भारतीय¨ं का आधार है इसलिए आज भी यही कहूंगी कि भगवान महावीर के सत्य एवं अहिंसा से कोई भी राष्ट्र शांति एवं निर्भयता से प्रत्येक समस्या का समाधान कर सकता है। उनके सिद्धान्त, न केवल सामाजिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में, वरन राजनैतिक क्षेत्र में भी अत्यधिक सार्थक एवं प्रासंगिक हैं। महावीरजी का ’अहिंसा’ का दिव्य संदेश, स्वार्थ प्रवृति एवं संकीर्ण मनोवृति को विराम दे, चुनावी हिंसा और आंतक के तांड़व नृत्य को रोक सकता हैं। ’सत्य’ का आचरण घोटालों में लिप्त राजनेताओं एवं नौकरशाहों को राष्ट्रहित की प्रेरणा दे सकता है।’

“अचैर्य” और ’अपरिगृह’ का संदेश, भ्रष्ट्राचार एवं कालाबाजारी को रोक, सामाजिक विषमता को कम कर सकता है। “जीयो एवं जीने दो” का सिद्धांत, आपसी वैरभाव और कटुता को कम कर सकता है। महावीरजी के अनेकान्तवाद के सच्चे प्रयोग से चुनाव में व्याप्त साम्प्रदायिकता एवं कट्टरता के भूत को भगाया जा सकता है।
महावीरजी के सिद्धान्त किसी विशिष्ट समाज, विशेष समय या परिस्थिति के लिये नहीं थे, वरन् सार्वभौमिक थे। अतः महावीरजी का दर्शन सभी के लिये जीवन्त दर्शन है। इसके अभाव में ज्ञानी का ज्ञान, पंडित का पांडित्य, विद्धान की विद्वता, भक्तों की भक्ति, अहिंसकों की अहिंसा, न्यायाधीश का न्याय, राजनेताओं की राजनीति, चिन्तकों का चिन्तन, और कवि का काव्य अधूरा है। सिद्ध है कि महावीरजी के सिद्धान्तों को अस्वीकारना पूर्णतः गलत होगा क्योकि उनके दर्शन में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिगृह का समग्र दर्शन है जो शाश्वत सत्य की आधारशीला पर प्रारूपित है। महावीर के सिद्धान्तों की धवल ज्योत्सना विश्व कल्याण कर सकती है, यदि व्यक्ति राग-द्वेष, ईष्र्या स्वार्थ एवं साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर, विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय की ओर ले जाने वाली राह को अपनाये। इसी भावना के साथ आप सभी को महावीर जयन्ती की हार्दिक शुभकामना।