आगामी चुनावों पर ही देश की दिशा व दशा का निर्धारण होगा

एस. एस. डोगरा

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दिल्ली के आलावा चार अन्य विधानसभा चुनावों ने फिर से सत्ता का खेल तथा राजनैतिक हलचल को सुर्ख़ियों में ला खड़ा कर दिया है. आज मीडिया में इन्ही सरगर्मियों को लेकर शरद ऋतु में भी माहौल को गर्माया हुआ है. देश में सबसे अधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी हो या विपक्ष के आसितत्व में एकमात्र भारतीय जनता पार्टी विशेष रूप से प्रचार प्रसार तथा जन-जन तक पहुँचने में रात-दिन एक कर अपनी जीत की नींव को पक्की करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है. इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि मार्च,२०१४ में लोकसभा का आम चुनाव भी होना है उसी को ध्यान में रखते हुए ये विधानसभा चुनाव एक पूर्वाभ्यास के रूप में लिया जा रहा है. हालांकि इस बार चुनाव आयोग द्वारा आचार सहिंता लागू किए जाने के कारण, प्रतेयक राजनैतिक पार्टी व् पार्टी से जुड़े उम्मीदवार व् समर्थक को प्रचार प्रसार व् चुनावी खर्चों में मजबूरन कई पूर्व सावधानी बरतने पड रही हैं.

दिल्ली में होने वाले चुनावों को लेकर कांग्रेस, भाजपा तथा आप पार्टी ने किस कदर उम्मीदवारों की सूची को जारी करने में कितना गंभीरतापूर्वक लिया वह किसी से छिपा नहीं है. इससे भी बड़ा विषय रहा भाजपा में भावी मुख्यमंत्री को पेश करने का मुद्दा. दिल्ली की राजनीती में दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष पद को हासिल करने के बाद अमूमन मुख्यमंत्री की दावेदारी समझने लगते हैं. इसमें चाहे बिजेंद्र गुप्ता हो, चाहे विजय गोयल और चाहे जय प्रकाश अग्रवाल. जब आगामी विधानसभा के लिए भावी विधयाकों को टिकट बाटने का विषय हो तो किसी पर पारिवारिक मोह, क्षेत्रवाद, भाई भतीजावाद कहीं ना कहीं आला कमान को भी झुकना पड़ा है. वैसे इस बार युवा कार्यकर्ताओं में कुछ ज्यादा ही उतावलापन देखने को मिला है. हालाँकि देश को आजादी मिलने के बाद सन १९७५ तक कांग्रेस का बोलबाला रहा और उस समय टिकट का निर्धारण करने के लिए पार्टी की आला कमान को सम्मान दिया जाता था कोई बगावत जैसी बात थी ही नहीं. परन्तु इस बार दिल्ली के विधानसभा के चुनावों में विधायक का टिकट हासिल करने के लिए बड़े ही अजूबे उदहारण देखने को मिले. शायद युवा नेता तो अपनी अपरिपक्वता के कारण लेकिन कुछेक वरिष्ठ नेता अपनी मह्त्व् कांक्षा के कारण अपनी चुनावी जंग में उतरने के लिए किसी पार्टी से अपनी दावेदारी साबित करने में किसी भी स्थिति में पीछे नहीं रहना चाहते हैं. आचार सहिंता लागू होने से उम्मीदवारों को प्रचार-प्रसार में कई सावधानियां बरतनी पड़ रही हैं. जबकि दूसरी ओर सोशल मीडिया के जरिए कोई भी उम्मीदवार अपने को सबसे अधिक सक्रिय दिखाने के लिए बखूबी प्रयासरत है. भले ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से इन सबका प्रयोग का समय ना मिलता हो. मगर पिछले लगभग पांच वर्षों से वेब साईट, ईमेल, एस एम एस, फेसबुक, ट्विटर जैसे माध्यम का खूब प्रयोग किया जा रहा है. इससे पहले इन अत्याधुनिक चुनाव प्रचार प्रणाली का प्रयोग पहले कभी हुआ ही नहीं. दिल्ली के इतिहास पर नजर डाले तो १९५२ से १९५५ तक चौधरी ब्रह्म प्रकाश, १९५५ -56 तक श्री जी.एन. सिंह, १९५६ से १९९३ तक केंद्र साषित प्रदेश रहा है, फिर श्री मदन लाल खुराना ने १९९३-९६, डॉक्टर साहिब सिंह वर्मा ने १९९६-९८ तथा १९९८ में ही सुश्री सुषमा स्वराज के बाद सबसे लम्बे कार्यकाल १९९८ से २०१३ तक श्रीमती शीला दीक्षित ने राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में देश की राजधानी की गद्दी पर राज किया. हैरत की बात है कि कुछेक उम्मीदवार तो अपने चुनावी क्षेत्र, समाज, लम्बित कार्य व् भावी योजनाओं के आलावा अपनी पार्टी के उद्घोष पत्र तक से भली भान्ति परिचित तक नहीं है. अपने शिष्टाचार, व्यवहार, कार्यशैली, उर्जा, प्रभाव, कर्मठता, मेहनत, व्यक्तितत्व, परिवार, समाज सेवा तथा सर्वोपरि मानवता के नाम पर कितना खरा उतरते हैं यही एक महत्वपूर्ण सवाल है. जिसके लिए एक मतदाता किसी भी उम्मीदवार को मत देने के लिए मजबूर कर सकता है. 
आज समाज के सभी वर्गों में बस इसी बात का चर्चा है कि हमारा नेता कैसा हो? उन्हें किसी भी राष्ट्रीय व् कुकुरमुत्ते की तरह पनपती हुई पार्टियों से कोई सरोकार नहीं है. लोग अपने उसी नेता को चुनना चाहते हैं जो उनकी मुख्य समस्याओं का सुगमता से बिना किसी विलम्ब से समाधान कर सके. अब देखना यह है कि इस बार कांग्रेस के समक्ष भी कई समस्याएँ हैं भाजपा अपने को साबित करने में जुटी है, आप लोगों में कितनी जगह बनाने में कामयाब होंगे, इन सब समीकरणों का पता तो दिल्ली के विधानसभा चुनाव का 4 दिसंबर को ही लगेगा जिसके आधार पर ही 8 दिसम्बर का फैसला खुद बयाँ कर देगा. इन परिणामों के ऊपर ही अन्य राज्यों के अलावा आगामी मार्च में होने वाले आम चुनाव (लोकसभा) तथा देश की दिशा व दशा का निर्धारण होगा.