पिछले कई सालों से फिल्म व सीरियल के निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय फिल्मकार राजेश कुमार जैन का मन हिन्दी फिल्म का निर्माता निर्देशक बनने का किया एक अच्छे विषय पर काम करने इच्छा रही है। पिछले दो दशक में फिल्म-सेट और कई बड़े निर्देशकों के साथ उठना बैठना होता रहा उसके बाद में निर्णय लिया कि बेहतर है कि कुछ अपना ही किया जाए। अकेले में जब सोचने बैठते तो लगता कि समय गुजरता जा रहा है, अगर जल्दी कुछ नहीं किया तो सपना, सपना ही बनकर रह जाएगा। तब खुद निर्माता बनने का बनने का फैसला किया। राजेश कुमार जैन के पास अनुभव है, बातौर फिल्माकार उन्होंने शार्ट फिल्म इतवार – द संडे,ब्लू माऊॅटेन्स,आई एम के अलावा टीवी शो अनुदामिनी के बाद दूरदर्शन पर प्रसारित अब ‘बस थोडे़ से अंजाने ’टीवी शो में माध्यम से दर्शकों के बीच है ।
राजेश कुमार जैन बताते है कि शार्ट फिल्में खासी पापुलर हो रही है,सो मैंने भी सोचा कि फिल्मों की अपेेक्षा कुछ नया किया जाये। मुझे खुशी है कि मेरा यह प्रयोग कामयाब भी हुआ। वह कहते हैं, ‘ मैं खुश हूं कि मेरी शार्ट फिल्म द संडे,ब्लू,माऊॅटेन्स,आई एम खासी लोकप्रिय हुई।
राजेश कुमार जैन बताते हैं कि ‘‘उत्तर भारत इस समय सिनेमा के लिए एक बेहतर सब्जेक्ट की तरह है। यहां अपराध के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं। चारों और नफरत की हवा चल पड़ी है। एक-दूसरे से प्रतिशोध की घटनाएं भी जोर पकड़ रही हैं। सिनेकर्मी चाहें तो फिल्में बनाकर सोशल मैसेज दे सकते हैं कि समाज को कितना नुकसान हो रहा है। हर कोई एक-दूसरे से कितना डरा डरा सा रहने लगा है यानी विकास किस तरह अपने बीच से गायब हो गया है। यथार्थवादी फिल्में बनाना आसान तो नहीं है लेकिन वह जोखिम उठा रहा हूं।’ राजेश कुमार जैन के लिए फिल्म बनाना सिर्फ खुद को चमकाना और व्यवसाय करना नहीं है बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
राजेश कुमार जैन कहते है कि ‘अनगिनत कहानियां, अनगिनत किरदार, पिछले कई सालों से हम टेलिविजन पर देखते आ रहे हैं। कई किश्तों में रिश्ता कोे बनते-बिगड़ते देखते-देखते हम अपनों की अहमियत ही भूल गये हैं। एक के बाद एक हादसेे को देेखते-देखते खूबसूरती नज़र से उतर गई है। किरदारों की आंख में आंसू देख-देखकर उम्मीदों से रिश्ता टूट गया। हैं। हमारी ही ज़िन्दगी टेलिविजन स्क्रीन पर किसी दूसरी दुनिया की जिंन्दगियों जैसी क्यों दिखती है? हमारा ही यकीन फ़रेब केे जैसा क्यों दिखता है? हमारा ही सच झूठ का आईना क्यों लगता है। जोे एहसास जिन्दगी की परवरिश करते हैं वह शूल की तरह क्यों चुभते हैं? इन सवालों का जवाब तलाशते वक़्त मुझे एहसास हुुआ कि, किस्सेे सिर्फ कागज़ पर लिखे नहीं जाते हैं। ये थीम है हमारे शो की।