मातृ दिवस के अवसर पर !

बहुत दिन नहीं , बहुत वर्ष बीत गए हैं ,

लम्हों  में  माँ  मुझे  याद आती है !

पता नहीं कैसे लोग बोल देते हैं ,

कि  बच्चों को तो एक माँ चाहिए ,

मगर मैंने तो अनुभव किया है —

हम जैसे बड़ों को भी माँ चाहिए होती है !

जिंदगी में  ऐसे अनेकों पल आते हैं ,

जब हमें भी ऐसा लगता है कि  —

काश ! आज मेरे पास भी माँ होती ,

और मैं भी भागके माँ की आगोश में 

सिर रखकर लेट जाता और

माँ सनेह भरे हाथों से मेरा सिर  सहलाती ,

और मेरा माथा चूमती और कसके जफ़्फ़ी

डालके ढेर सारा प्यार दुलार करती ,

और फ़िर तृप्त मन से मैं भी सो जाता —

या हर्षोल्लास में डोलता फिरता और

हिलोरे लेते हुए खेलता रहता !

दोपहर को कॉलेज से लौटने पर ,

जब भी तूं  मुझे रोटी सब्जी देती ,

सब्जी स्वाद नहीं बोलकर मैं भी थाली सरका देता ,

और फ़िर तूं मुझे देसी घी शक्कर के साथ रोटी देती !

लेकिन फ़िर अब घर का आँगन याद

दिलाता है — अब ना माँ है और ना ही बाप !

वह तो कब से समय के कालचक्र में

समाकर ब्रह्मलीन हो चुके हैं !

कभी हम एक साइकिल के लिए तरसते थे,

आज अपनी कार, सुख सुविधाओं से

भरा हुआ बड़ा सा अपना घर है ,

बस — माँ बाप नहीं है मेरे पास !

माँ बाप बसते हैं अब हमारे दिल के

आँगन में , और मन के मन्दिर में ,

और अपने समय में  उन्होंने

हमें खूब लाड प्यार दिया और

पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया ,

हमारा जीवन सँवारा और बेहतर

मार्ग पे चलने की कला सिखाई !

और अब हमारी बारी  है ,

हम अपने नाती पोतों को लाड प्यार

से पालें पोसें और उनको उनके

हिस्से का प्यार और दुलार दें ,

कुदरत का भी यही  नियम है —

और यह एक पीढ़ी से दूसरी

पीढ़ी तक ऐसे ही चलते रहना चाहिए !

माँ !  तुम आज भी जिन्दा हो —

मेरे दिल में , मेरे बच्चों में ,

क्योंकि अब वही  हैं मेरे जीने

का सहारा और प्रेरणा भी !!

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रचना : आर डी भारद्वाज “नूरपुरी “