आरक्षण में क्रीमी लेयर का फ़ैसला असंवैधानिक !

पहली अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया है, जिसमें उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों के सब-कैटिगराइजेशन के साथ ही क्रीमी लेयर की भी बात करते हुए बोला है कि इन वर्गों में से क्रीमी लेयर वालों को आरक्षण के दायरे से बाहर निकाल देना चाहिए ! क्रीमी लेयर अर्थात इन वर्गों में जिन लोगों ने आरक्षण पॉलिसी का लाभ उठाते हुए प्रगति कर ली है, उनके आर्थिक हालात सुधर गए हैं, अब उनको और आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए ! लेकिन अगर हम इस फ़ैसले पर संविधान की भावना की दृष्टि से विचार करें तो हमें पता चलेगा की यह निर्णय बिलकुल गलत है, असंवैधानिक है! भारत में दलित समुदाय के लोगों के लिए आरक्षण बाबा साहेब के पूना पैक्ट के माध्यम से मिला था। बाद में बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरू जी और महात्मा गांधी द्वारा रिजर्वेशन पॉलिसी बनाकर इसको को जारी रखा गया। अब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को क्रीमी लेयर का बोल कर आरक्षण से बाहर निकालना, उनके ऊपर एक बड़ा प्रहार करने जैसा ही है। आरक्षण के बारे में कोई भी फैसला करने से पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने इस विषय पर चर्चा करते हुए बड़े स्पष्ट शब्दों में बोला था कि आरक्षण कोई गरीबी दूर करने की योजना नहीं है! इस मुद्दे पर संविधान समिति में बड़े विस्तार से बातचीत की गई और देश की सांसद को बताया गया था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ हज़ारों वर्षों से भेदभाव, अस्पृश्यता वाले अमानवीय व्यवहार होते रहे हैं, जिनकी वजह से दलित समाज के लोग सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से बेहद पिछड़े हुए हैं और यह मुद्दा केवल एक दो प्रांतों तक ही सीमित नहीं था , बल्कि पूरे देश में हज़ारों वर्षों तक ऐसा व्यवहार होता रहा है जिसकी वजह से इनके सामाजिक व आर्थिक अधिकारों से इनको वंचित रखा गया था, जिसके परिणाम स्वरूप, यह लोग पढ़ाई लिखाई और आर्थिक रूप से बाकी समाज से बहुत पिछड़े और हीन भावना के शिकार हैं! इनके साथ सामाजिक न्याय करने के लिए इनको शैक्षणिक संस्थानों / नौकरी के लिए और जनप्रतिनिधि चुनने इत्यादि के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है!  

यह बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की आज़ादी के बाद इस आरक्षण की वजह से लाखों लोगों के जीवन में सुधार आया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है इन वर्गों के साथ अब भी पहले वाला जातिगत भेदभाव / अस्पृश्यता / अत्याचार / तिरस्कार या शोषण के किस्से होने बंद हो गए हैं ! इनके साथ अगड़ी जातियों के लोगों का व्यवहार अभी भी वैसा ही चल रहा है ! आओ, जानने की कोशिश करते हैं कि किन २ दलित समाज के लोगों के साथ आर्थिक रूप से प्रगति करने के बाद भी उनको ऐसा घटिया सामाजिक व्यवहार झेलना पड़ा है, अगड़ी जातियों का उनके प्रति मानसिक नज़रिया अभी भी उन्नीसवीं सदी वाला ही है, क्योंकि अपने आप को अगड़ी जाति कहलाने / मानने के बावजूद भी यह लोग अपनी सदियों पुराणी मनुवादी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं!

1. बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न तो सैकड़ों बार हुआ था, स्कूल के दिनों में क्लासरूम से बाहर बैठकर उनको पढ़ना पड़ा! पानी पीने के लिए स्कूल में रखे हुए घड़े को वह छू भी नहीं सकते थे, जब वह लन्दन से एमए करके वापिस भारत आकर महाराजा गायकवाड़ के मिलिट्री सेक्रेटरी के पद पर नौकरी करने लगे तो उनका चपड़ासी उनको पानी तक नहीं पिलाता था, यहां तक कि जब इतनी बड़ी २ डिग्रियां लेकर वह इतने बड़े विद्वान बन गए, अनेकों पुस्तकें लिख चुके थे, उच्चकोटी के वकील, कॉलेज के प्रिंसिपल रहने के बाद, जुलाई 1945 में ओडिशा के जगन्नाथ पूरी मंदिर में जब उन्होंने जाना चाहा, तो उनको दरवाजे पर ही रोक दिया गया, कारण – वह जाति से शूद्र हैं!  

2. राष्ट्रपति केआर नारायणन देश के दलित राष्ट्रपति थे। उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष से भरा हुआ था, उन्होंने भी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई की थी ! महामहिम राष्ट्रपति डॉ. केआर नारायणन ने सन 1943 में त्रावणकोर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में प्रथम श्रेणी से एमए (इंग्लिश) पास किया और पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आये ! एमए करने वाले वह पूरे केरल स्टेट में वह पहले दलित विद्यार्थी थे ! एमए के बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर पद के लिये आवेदन किया। लेकिन त्रावणकोर के दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर को नारायणन के आवेदन पत्र से जब उनकी दलित जाति का पता चला, तो उसने इस पद पर नियुक्ति के लिए मना कर दिया और कहा कि आपको हम सिर्फ़ क्लर्क पद के लिए ही नियुक्त कर सकते हैं, किसी दलित को प्रोफेसर नहीं बना सकते ! अय्यर के मन में जातीय भेदभाव / घृणा इस क़दर भरी हुई थी कि वह कामगार किसान आदिवासी-कबाइली जमात के किसी भी युवक युवती को प्रवक्ता पद पर आसीन होते बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। स्वाभिमानी नाराणन जी ने भी क्लर्क की पोस्ट पर काम करने से साफ़ 2 यह बोलकर इन्कार कर दिया कि जब प्रोफ़ेसर पद के लिए मेरी शैक्षणिक योग्यता आपके द्वार निर्धारण के हिसाब से पूरी है, तो उसके लिए मुझे क्यों नहीं नियुक्त किया जा रहा ? इतना बोलकर वह इंटरव्यू से वापिस आ गए और सिविल सर्विसेज के लिए तैयारी करने लग गए और अंत में आईएफएस में उनका चयन हो गया !

3. डॉ. राजेंद्र प्रसाद : आज़ादी के बाद 1952 में देश के प्रथम राष्ट्रपति चुने गए ! लेकिन उनके राष्ट्रपति बनने के कुछ सप्ताह बाद ही ब्राह्मणों ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया, वह अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान देने के बाद ही राष्ट्रपति बने थे, इसके बावजूद भी ब्राह्मणों ने उनका जातिगत विरोध करना शुरू कर दिया, उनका कहना था कि डॉ राजेंद्र प्रसाद कायस्थ हैं और धर्म ग्रंथों के हिसाब से कायस्थ शूद्र जाति में आते हैं और किसी भी शूद्र को इतने ऊँचे पद पे बिराजमान होना देश और समाज के लिए अनिष्ट का प्रतीक होता है ! उनका ऐसा विरोध सबसे ज्यादा बनारस में हो रहा था ! विरोध करने वाले पण्डितों को समझाने की बड़ी कोशिश की गई, डॉ राजेंद्र प्रसाद की शैक्षणिक योग्यता का हवाला भी दिया गया और उनको बताया गया कि जन्म / जाति के आधार पर किसी से भेदभाव करना ग़लत बात है, लेकिन मनुवादी ब्राह्मण लोग मान ही नहीं रहे थे! इस गतिरोध को दूर करने के लिए इरादे से उस वक़्त के प्रधान मंत्री, जवाहर लाल नेहरू ने एक तरकीब निकाली, एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें बनारस के 101 पंडितों को बुलाया गया और डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बोला गया कि वह बारी २ से उन सब पंडितों के चरण धोएँ, प्रत्येक पंडित को 11-11 रूपये दक्षिणा के रूप में दान करें, उनके गले में फूलों की माला डालें और साथ में मिठाई का एक एक डिब्बा भी तोहफ़े स्वरूप भेंट करें ! यह घटना नवम्बर 1952 की है, देश के एक अच्छे पढ़ेलिखे और पूरे विधि विधान से चुने हुए राष्ट्रपति से यह सब काम करवाने के बाद पण्डितों का गुस्सा और विरोध शान्त हुआ और इसके बाद ब्राह्मणों ने घोषणा कर दी कि अब डॉ. राजेंद्र प्रसाद का शूद्र होने का अशुभ प्रभाव समाप्त हो गया है और फ़िर ऐसे पण्डित पैसे और मिठाई लेकर ख़ुशी २ अपने घर चले गए और उनके विरोध प्रदर्शन भी बंद हो जाएं !  

4. बाबू जगजीवन राम जब आज़ादी के बाद एक बार जगन्नाथ पुरी मंदिर में जाने वाले थे, तो उनको भी अंदर जाने से रोक दिया गया था ! केवल इतना ही नहीं, 1978 में जब वह देश के रक्षा मंत्री थे और वह एक बार हिन्दु यूनिवर्सिटी में उन्होंने ने उत्तर प्रदेश के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉ. सम्पूर्ण नंद की मूर्ति का उदघाटन किया था ! उदघाटन के बाद और बाबू जगजीवन राम के वापिस दिल्ली लौटने के बाद ब्राह्मण कहने लगे कि बाबू जगजीवन राम के स्पर्श करने से यह मूर्ति तो अपवित्र हो गई है, और फिर कुछ पंडितों को बुलाकर गंगाजल से उस मूर्ति को धोया गया था ! इतने ऊँचे पढ़ेलिखे होने के बावजूद, इतने ऊँचे पद / प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी मनुवादी ब्राह्मणों ने उनके माथे से अस्पृश्यता का कलंक ही लगाया, कितनी शर्म की बात है, और यह कलंक लगाने वाले किसी भी पण्डितों का देश की आज़ादी में कोई योगदान दिया है या नहीं, इसके बारे में कोई चर्चा नहीं हुई ! इससे भी पहले, एमर्जेन्सी के बाद 1977 में आम चुनाव में कांग्रेस हार गई, और नई २ बनी जनता पार्टी 295 सीटें लेकर पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत गई! जब चुनाव के नतीजे आने के बाद जनता पार्टी के चुनाव जीते हुए बड़े २ नेताओं की मीटिंग में प्रधान मंत्री पद के लिए विचार विमर्श चल रहा था, तो सबसे आगे नाम बाबू जगजीवन राम का ही था, क्योंकि वह इससे पहले भी बहुत से बड़े मंत्रालयों का काम बड़ी सफ़लता पूर्वक संभाल चुके थे! लेकिन तभी एक बड़े जाट नेता ने उनके नाम का यह बोलकर विरोध कर दिया कि अगर बाबू जगजीवन राम प्रधान मंत्री बने तो मैं सरकार में शामिल नहीं हूँगा! मतलब स्पष्ट था – वह एक दलित समाज के नेता का प्रधानमंत्री बनना बर्दाश्त नहीं कर सके और अपना कड़ा विरोध प्रकट कर दिया, यह एक कोरा जातिगत विरोध / नफ़रत नहीं तो और क्या था ?       

5. राष्ट्रीय एससी कमीशन के चेयरमैन पीएल पुनिया को भी जून 2011 में जगन्नाथ पूरी मंदिर में जाने से रोक दिया गया था, कारण वह दलित समाज से सम्बंधित थे ! यह तो कुछ ऐसे बड़े २ मामले हैं जिनको उनकी पिछड़ी जाति की वजह से मन्दिर में प्रवेश करने से रोका गया, बहुत से और लोगों की तो पिटाई भी कर देते हैं, इनके इलावा और न जाने लाखों लोगों के साथ नौकरी में भेदभाव और पदोन्नति के समय भेदभाव वाला रवैया अपनाया जाता है और उनकी उस नौकरी / पदोन्नति के लिए उनकी निर्धारित न्यूनतम योग्यता होने के बावजूद भी उनकी नियुक्तियाँ होने नहीं देते और ऐसे कितने ही चयन बोर्ड हैं जो अपने सरकारी रिकॉर्ड में दलित समाज के उम्मीदवारों को “नॉट फॉउन्ड सूटेबल” लिखकर उनको नौकरी / पदोन्नति से बाहर दिया जाता है ! उनके हिस्से की नौकरियों / पदौन्नतियों पर सामान्य वर्ग के लोगों को चुन लिया जाता है !    

6. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और उनकी पत्नी के साथ ओडिशा के उसी मंदिर में प्रवेश ( मार्च 2018 में ) के समय अभद्र व्यवहार और असंवैधानिक / अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया गया ! क्योंकि उनके साथ अभद्र व्यवहार करने वाले उड़िया भाषा में उनका अनादर कर रहे थे, और यह भाषा वह नहीं जानते थे, तो राष्ट्रपति कोविंद ने कुछ उड़िया पत्रकारों से अंग्रेजी में पूछा कि यह लोग क्या बोल रहे हैं ? तब उनको पता चला कि वह कह रहे थे कि यह मंदिर बहुत पवित्र स्थान है और तुम लोग शूद्र हो, आप लोगों ने यहां आने की गुस्ताखी कैसे करी, क्या आपको मालूम नहीं है कि शूद्रों का इस मंदिर में प्रवेश करना वर्जित है? यह कैसी विचित्र विडंबना है कि एक इतना पढ़ालिखा व्यक्ति देश का देश के सर्वोच्च पद – राष्ट्रपति तो बन सकता है, लेकिन पूरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता?

यह तो बस थोड़े से ऐसे उदाहरण हैं जिसमें दलित समाज के अच्छे पढ़ेलिखे और ऊँचे २ पदों पर पहुंचे हुए उन लोगों का जातिगत नज़रिये से घोर अपमान, नफ़रत, तिरस्कार इसलिए किया गया क्योंकि वह दलित परिवारों में जन्मे थे और उन्होंने देश और समाज के उत्थान के लिए बड़े २ क्रन्तिकारी परिवर्तन कार्य किये हुए थे ! जरा सोचो, अगर ऐसी बड़ी २ हस्तियों के साथ जातिगत भेदभाव और सामाजिक अपमान / घृणा होती है, तो इस समाज के आम नागरिकों के साथ दिन प्रतिदिन के जीवन में कैसा व्यवहार होता होगा ? यही कारण है कि हमें यदाकदा दलित समाज के लड़कों को शादी के वक़्त घोड़ी पर चढ़ने पर दंगे देखने को मिलते हैं, अनेकों जगह लड़कों को मूछें रखने पर, यहां तक कि राजस्थान में तो दलित समाज का कोई बंदा ब्राह्मणों के मोहल्ले में साइकिल / स्कूटर पर चढ़कर नहीं निकल सकता, वहां से उसे पैदल ही जाने के लिए मजबूर किया जाता है! उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड और मध्य प्रदेश में दलित परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर उनको गाँव की सांझी शमशान भूमि पर अंतिम संस्कार करने नहीं दिया जाता ! ऐसे और भी बहुत से किस्से ब्यान किये जा सकते हैं, लेकिन मतलब सबका एक ही है कि हमारे देश में आज़ादी के साढ़े सात दशक बीतने के बाद भी जातिपाति आधारित छुआछुत / भेदभाव / उत्पीड़न और नफ़रत समाप्त नहीं हुई है, और उसपे भी बड़े दुःख की बात तो यह भी है की ऐसे मामलों में पुलिस भी समय 2 अपनी बनती कार्यवाही करने से टलती रहती है, अदालतों तक तो ऐसे हज़ारों मामले पहुँचते ही नहीं हैं, क्योंकि लाखों दलितों के पास वकीलों की फीस देने के लिए इतने आर्थिक साधन ही नहीं होते!
एक और बात, हमारे देश में 28 प्रान्त और 8 यूनियन टेरिटरी हैं, और इन सभी के सरकारी काम सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत से विभाग / प्रभाग बनाए होते हैं ! अगर हम इन में सभी प्रान्त व यूनियन टेरिटोरी में सेवा करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों की एक लिस्ट बनाएं, और इसकी जाँच पड़ताल करें कि इन में से कितने लोग अनुसूचित जाति के हैं, कितने अनुसूचित जनजाति के हैं, तो हमें पता चलेगा कि उनकी गिनती आरक्षण पॉलिसी के हिसाब से क्रमशः 15% और 7.5% के निर्धारित गिनती से बहुत कम है, खास तौर पे अधिकारियों की संख्या तो नगण्य ही होगी! किसी किस्म की क्रीमी लेयर के मामले के बारे में सोचने से पहले आरक्षित वर्गे के इन कर्मचारियों की रिक्त नियुक्तियों को भरने का ख्याल किसी अदालत / मंत्री या मुख्यमंत्री वगैरह को क्यों नहीं आता ? इनके हिस्से की नियुक्तियां तो बड़े आराम से सामान्य वर्ग से भर ली जाती हैं, वह आरक्षित वर्ग के लोगों की हकमारी नहीं तो और क्या है ?          

इन सबको ध्यान में रखते हुए यह कहना ही उचित है कि ऐसे हालातों के चलते भी सुप्रीम कोर्ट का ऐसा फैसला बिलकुल भी न्यायोचित नहीं है, बल्कि इसको रद्द करना ही सबसे उचित होगा, क्योंकि आरक्षण देश में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव / उत्पीड़न / तिरस्कार / घृणा और छुआछूत की वजह से है, नाकि कोई गरीबी दूर करने की योजना ! वैसे भी संविधान में क्रीमी लेयर जैसा कोई जिक्र नहीं है, जब तक देश में जाति पाति को लेकर ऐसे मामले होते रहेंगे, आरक्षण लागू रहेगा, न तो इसमें कोई वर्गीकरण होना चाहिए और न ही इसे हटाया जाना चाहिए ; बल्कि प्राइवेट सेक्टर में भी इसे लागू करना चाहिए, क्योंकि अब सरकारी नौकरियां तो अब बहुत कम निकल रही हैं, तो फ़िर दलित समाज के लोग नौकरी के लिए कहां जाएंगे? वोह भी इसी भारत के नागरिक ही तो हैं ! और आखिरी बात – देश के वित्तीय / आर्थिक / संसाधनों पर सबका बराबर का अधिकार होना चाहिए, किसी एक दो धर्मों / जातियों का एकाधिकार तो हरगिज़ नहीं ! आज आरक्षण होते हुए भी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दलित समाज के लोग बहुत कम हैं, सुप्रीम कोर्ट में भी नाम मात्र के लोग हैं।

वहीं सभी सरकारी पदों पर बड़े अफसरों की गिनती भी उनके बनते हिस्से के हिसाब से बहुत कम है। इतना बड़ा बैकलॉग होने के बावजूद आप क्रीमी लेयर की लकीर कैसे लगा सकते हैं ? वैसे यह वर्गीकरण केवल आरक्षण में ही क्यों हो, देश के धन, धरती, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, संसाधन और कोलेजियम सिस्टम में भी क्यों नहीं लागू करते ? जय भीम ! जय भारत !! जय संविधान !!!     
आरडी भारद्वाज  “नूरपुरी “