आर. डी. भारद्वाज “नूरपुरी”
श्री गुरु रविदास जी महाराज 15वीं शताब्दी के एक महान संत, दार्शनिक, आध्यात्मिक कवि और समाज सुधारक विद्वान थे । उस वक़्त समाज में बहुत सी बुराईआं / आडंबर / कुरीतियाँ चल रही थी, जैसे कि जातिपाति के आधार पर छुआछात , अस्पृश्यता , पाखण्डबाजी, बेसिरपैर के ढोंग करके पंडितों द्वारा तरह २ के कर्मकांडों के माध्यम से लोगों को ठगना, इत्यादि ! गुरु रविदास जी ने अपने पूरे जीवन में ऐसी अनेक समाजिक बुराईओं से लोगों को छुटकारा दिलवाने के लिए अनेक प्रकार के अथक प्रयास किये , लोगों को समझाने की बड़ी कोशिश की कि यह जातिपाति , धर्म मज़हब सब व्यर्थ की मान्यतायें हैं , परमपिता प्रमात्मा ने तो सभी इन्सान एक जैसे ही और बराबर बनाये हैं और इनकी समाजिक पहचान के आधार पर किसी से भेदभाव करना बिलकुल ही ग़लत है ! फ़रवरी महीने में इनके जन्म दिवस के अवसर पर देश के अनेक भागों में , खास तौर पे पंजाब, हरियाणा , हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश में बहुत सारे सुन्दर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इनके अनुयाई इस दिन को बड़ी धूमधाम से एक त्यौहार की तरह ही मनाते हैं।
एक दलित परिवार में, गोवेर्धन पुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश में माता कलसा देवी और पिता संतोख दास जी के घर उन्होंने 1433 में अवतार लिया था ! उनके पिता जी अपने गाँव के प्रधान भी थे और चमड़े का काम किया करते थे और जीवन यापन के लिए जूते बनाकर बेचा करते थे ! वह बचपन से ही बहुत निडर, साहसी थे और साफ़गोई से सच्चाई बयान करने की हिम्मत रखते थी ! बचपन से ही ईश्वर के प्रति भक्ति उनके ह्रदय में समाई हुई थी और उन्होंने अपना पूरा जीवन सांसारिक इच्छाओं रहित ही बिताया ! उनको बहुत सारे उच्च जातियों द्वारा बनाये गए अपमान-जनक नियमों और मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा था जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने लेखों / बाणी में भी किया है। रविदास जी को बचपन से ही उच्च कुल वालों की हीन भावना का शिकार होना पड़ा था, और उन्होंने समाज की ऐसी व्यवस्था को बदलने के लिए अपनी कलम और बाणी का सहारा लिया, वे अपनी रचनाओं के द्वारा मनुष्य जीवन का उदेशय लोगों को समझाते ! लोगों को शिक्षा देते कि इन्सान को बिना किसी भेदभाव के आपने सबसे एक समान प्रेम भावना से रहना सिखाया करते थे !
बचपन में उनको शिक्षा प्रदान करने हेतु पंडित शरदा नन्द की पाठशाला में भेजा गया, वह अभी एक महीना ही वहाँ गए थे कि ऊँची जाति वालों ने रविदास जी की जाति की वजह से उनका पाठशाला में आने का बड़ा विरोध करना शुरू कर दिया और आख़िर में पाठशाला से निकलवा ही दिया ! लेकिन पण्डित शरदा नन्द जी रविदास जी की तीक्षण प्रतिभा को पहचान चुके थे कि यह बच्चा तो भगवान द्वारा भेजा हुआ एक ख़ास बच्चा है, और उन्होंने मन पक्का कर लिया था कि इस बच्चे को विद्या तो अवश्य देनी चाहिए , अत: उन्होंने रविदास जी को अपनी व्यक्तिगत पाठशाला में शिक्षा देना शुरू कर दिया ! वे एक बहुत प्रतिभाशाली और होनहार छात्र थे, उनके गुरु जितना उन्हें पढ़ाते थे, उससे ज्यादा वे अपनी बुद्धि से शिक्षा गृहण कर लेते थे ! पंडित शरदा नन्द जी रविदास जी से बहुत प्रभावित रहते थे, उनके आचरण , प्रतिभा और संत स्वाभाव को देखकर वे सोचा करते थे, कि रविदास आने वाले समय में एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक गुरु और महान समाज सुधारक बनेगा !
रविदास जी के साथ पाठशाला में पंडित शरदा नन्द जी का एक बेटा भी पढ़ता था, थोड़े ही दिनों में वे दोनों अच्छे मित्र बन गए थे ! एक बार वे दोनों गाँव के कुच्छ और लड़कों के साथ छुपन छुपाई का खेल रहे थे, थोड़ी देर खेलने के बाद रात हो गई, और घर वालों ने बच्चों को बोला कि अब आप अपने २ घर जाओ और कल फ़िर खेलने को आ जाना ! अगले दिन जब रविदास जी उनके घर खेलने पहुँचे तो पता चला कि उनके दोस्त की तो रात को ही मृत्यु हो गई है ! ये घटना सुनकर रविदास सुन्न पड़ गए, तब उनके अध्यापक शरदा नन्द जी उन्हें यकीन दिलाने के लिए मृत मित्र के पास ले गए , रविदास जी को बचपन से ही अलौकिक शक्तियां मिली हुई थी, वे अपने मित्र का हाथ पकड़कर कहने लगे, “उठो मित्र, आयो खेलें , यह कोई सोने का समय नहीं है !” रविदास जी की आवाज सुनकर और उनके हाथ का स्पर्श पाकर उनका मृत दोस्त थोड़ी ही देर बाद खड़ा हो गया , ये चमत्कार देख वहां मौजूद सभी लोग अचंभित हो गए और कुच्छ को यह आभास हो गया कि यह रविदास तो वाक़्या ही दिव्या शक्तियों वाला एक अलौकिक बालक है, जिसे ईश्वर ने किसी ख़ास उद्देश्य से ही धरती पर भेजा है !
भगवान के प्रति उनका घनिष्ठ प्रेम और भक्ति के कारण वो अपने पारिवारिक काम-धंधे और माता-पिता से दूर हो रहे थे, अत: यह सोचकर कि रविदास जी कहीं कोई साधु सन्यासी बनके घर से भाग न जायें , उनके माता-पिता ने उनका विवाह, श्रीमती सोमा देवी और श्री सुजान दास जी की सुपुत्री – लोना देवी से करवा दिया और उनसे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम विजय दास रख दिया गया ! यह विजय दास उनकी इकलौती संतान थे !
ब्रह्मज्ञान की बहुमूलय बख्शिश होने के बाद जब गुरु रविदास जी जगह – २ घूमकर अनेक प्रकार के भ्रमों में फंसे हुए लोगों को इस अंधकार से निकालने के लिए स्थान – २ जाकर सत्संग किया करते थे और आम जन साधारण को इस ज्ञान से वाक़िफ़ करवा रहे थे ! गोवर्धनपुर और आस पास के बहुत से इलाकों में उनकी बड़ी प्रसिद्धि हो गई, लोगों को इस बात का आभास होने लग गया था कि यह कोई दिव्या आत्मा / आध्यात्मिक गुरु हैं जोकि लोगों का कल्याण करने के लिए मानस चोले में अवतार लिया है ! इन लम्बी – 2 कल्याण यात्राओं के दौरान उन्होंने पंजाब में चूहड़काना, सुल्तानपुर लोधी, ख़ुरालगढ़, गढ़शंकर, चकहकीम, फगवाड़ा का भी भ्रमण किया ! वह लोगों को समझाने की कोशिश किया करते थे कि ईश्वर के बनाये हुए सभी प्राणियों में से सबसे उत्तम रचना मानव जन्म ही है और इसका मूल उद्देश्य प्रभु प्राप्ति ही है , जोकि आप तब तक नहीं कर सकते जबतक आपके दिल में दूसरों के प्रति उनकी जातिपाति, नफ़रत, धर्म मजहब की ऊँच-नीच देखते हुए उनके साथ भेदभाव करते रहोगे ! सब बन्दे उस प्रमात्मा के ही बनाए हुए हैं और सबके साथ हमें सद्भावना, प्रेम, भाईचारे, दया , करुणा और विनम्रता से व्यवहार करना चाहिए ! तो ऐसी ही उनकी एक कल्याण यात्रा के दौरान जब एक बार चूहड़काने (अब पाकिस्तान) में गुरु रविदास जी अपने कुच्छ और साथी / अनुयाई साधु संतों (संत कबीर जी, नामदेव जी, तरलोचन जी, सदना जी और सेन जी) के संग अपनी जन कल्याण यात्रा पर निकले हुए थे, तब वहाँ नानक देव जी अपने एक बचपन के मित्र भाई मरदाना के संग इनका सत्संग सुनने आये ! यह सब साधु संत महात्मा जगह २, गाँव-2 घूमकर लोगों को प्रमात्मा के बारे में समझाते, अध्यात्मवाद पर प्रवचन करते और जाति-पाति / धर्म-मज़हब में फँसे लोगों को इस भ्रमजाल से निकालने के लिए लोगों को प्रेरित किया करते थे और उनको ब्रह्मज्ञान की बहुमूल्य दात / बख्शिश देते |
उन्होंने पण्डितों द्वारा फ़ैलाये गए और तथाकथित धार्मिक पुस्तकों में बताई बताई गई अनेक किस्म की पाखंडवादी, गुमराह करने वाली और दूसरों को नीचा / छोटा बतलाने वाली धारणाओं का खंडन किया और लोगों को समझाने का यत्न किया कि इन्सान के बहुत से दुखों का असली कारण उसकी भोग विलास की प्रक्रिया , उसकी पाँच इंदिरियों – आखें, नाक , कान , जीभ और तवचा हैं और इन सबकी वजह से ही हमारे मन में अच्छी बुरी भावनाएँ उत्पन होती हैं ! अच्छे बुरे सब प्रकार के ख़्याल / विचार हमारे मन में ही पैदा होते हैं, मन ही सब किस्म की भावनाओं का पुँज है और इस लिए मन पर अंकुश लगाना अत्यंत आवश्यक है ! मन अगर अच्छा सोचता है तो हम अच्छे कर्म करते हैं, बुरा सोचता हैं तो बुरे कर्म करते हैं ! हमारी ज़िन्दगी की हुकूमत हमारे मन के हाथों में ही है ! हमारी इच्छाएँ अमरबेल की तरह ही होती हैं, और यह हमारे मन में बुराईआं पैदा करती हैं, यही एक मनुष्य को दूसरे का शोषण करने के लिए उकसाती हैं, आदमी सभी चोरियाँ , बुराइयाँ , झूठ बोलना, किसी लालच में आकर किसी बड़े बन्दे की झूठी खुशामद करना, निन्दा, चुगली / ईर्षा करने के लिए भी मज़बूर हो जाता है ! उन्होंने ऐसी बातों का भी घोर खंडन किया कि आदमी अपने पाप कर्म को किसी पवित्र झील या गंगा नदी में स्नान करके धो सकता है ! अगर सचमुच ऐसा होता तो पानी में रहने वाले लाखों किस्म के जानवर तो कभी मरते ही ना, अमर हो जाते ! नहाने धोने से हमारे शरीर की मैल निकलती है, मन की नहीं ! मन की मैल तो केवल और केवल किसी सच्चे सतगुरु / पीर पैगम्बर की शरण में जाने और उसके बताये हुए वचनों पे चलने से ही निकलेगी! इसके बिना तो अपने बेलगाम मन के वश में आकर आदमी दुराचारी बन जाता है, दूसरों के अधिकार छीनने लग जाता है, अमीर और ताकतवर बन्दे दूसरों को ग़ुलाम बनाने की फ़िराक़ में लग जाते हैं ! गुरु रविदास जी अपने एक श्लोक में फ़रमाते हैं :-
प्राधीनता पाप है , जान लियो रे मीत / रविदास प्राधीन को कौन करे है प्रीत /
प्राधीन का दीन क्या, प्राधीन बेदीन / रविदास प्राधीन को , सब ही समझें हीन !!
अपने सामाजिक व आध्यात्मिक कृत्या करते २ उन्होंने अनेक जीवों का कल्याण किया , लेकिन इस सबके बावजूद भी बहुत से ऐसे बीमार मानसिकता / अहँकार वाले लोग थे जो उनकी बातों को सिरे से ही ख़ारिज कर देते थे ; क्योंकि ऐसे करने से ही उनके स्वार्थसिद्धि के कर्मकांड प्रफुल्लित होते थे ! ब्रह्मणवादी / मनुवादी विचारों वाले यह लोग अक्सर उनको हमेशा जूते बनाने वाला और फटे-पुराने जूतों की मुरम्मत करने वाला एक शूद्र ही समझते रहे, जबकि उन्होंने कई बार अपनी अलौकिक शक्तियों / कौतक / अविश्वसनीय चमत्कारों से आम जन साधारण का कल्याण भी कर चुके थे! सतगुरु अगर चाहे तो किसी भक्त की भक्ति / सेवा से प्रसन्न उसकी किस्मत भी बदल सकता है !
एक बार की बात है कि एक दिन उनकी दुकान पर गंगा राम नाम का एक पण्डित आया और उसने अपना टूटा हुआ जूता मुरम्मत करने को रविदास जी को दिया ! जब रविदास जी उसका जूता मुरम्मत कर रहे थे , वह बार – २ उनको बोल रहा था कि जल्दी करो , “मैंने गंगा जी में स्नान करने जाना है ! तुम ठहरे शूद्र , तुम गंगा स्नान की महमा क्या जानो?” रविदास जी उस ब्राह्मण गंगा राम की अहँकार भरी बातें सुने जा रहे थे और साथ – २ उसका जूता भी मुरम्मत कर रहे थे ! मुरम्मत का काम पूरा होने पर गंगा राम ने करवाए गए काम का मेहनताना – एक दमड़ी रविदास जी की तरफ़ सरका दी और दुकान से बाहर जाने लगा ! रविदास जी ने उसे आवाज़ दी , “पण्डित जी ! ज़रा मेरी एक बात तो सुनो !” सुनकर पंडित जी वापिस दुकान में आये और बोले , “हाँ ! जल्दी बोलो ! क्या बात है , मुझे देर हो रही है !” रविदास जी ने वही दमड़ी पंडित जी को वापिस करते हुए कहा , “गंगा स्नान करने के बाद यह एक दमड़ी मेरी तरफ़ से गंगा मईया को सौंप देना ! और हाँ ! एक बात का ध्यान रखना , मेरी दमड़ी ऐसे ही गंगा में फैंक मत देना , जब गंगा मईया दमड़ी पकड़ने के लिए पानी में से अपना हाथ आगे बढ़ायें , तभी देना !” पंडित जी ने रविदास के हाथ से दमड़ी ले तो ली और जाते – २ माथा सिकोड़कर तंज भी कस दिया , “आजतक कभी ऐसा हुआ है कि गंगा मईया ने पानी में से हाथ बाहर निकालकर किसी से तोहफ़ा स्वीकार किया हो ?” उसकी बात सुनकर रविदास जी मुस्कराने लगे और बोले , “लेकिन आप ने ऐसा ही करना जैसे मैंने आपको समझाया है !”
रविदास जी की बात सुनकर पंडित गंगा राम बुड़बुड़ाने लगा और गंगा की तरफ़ चलता जा रहा था ! साथ में सोचने भी लग गया कि रविदास ने अपनी मेहनत की जो एक दमड़ी कमाई है, वह भी गंगा मईया को भेंट करने को बोल दिया , यह बंदा खुद क्या खायेगा और अपने बच्चों को भी क्या खिलायेगा ? लगता है इसकी बुद्धि स्थिर नहीं हैं ! ख़ैर , वहाँ पहुँचकर पंडित जी ने बड़े मजे से स्नान किया और कपड़े पहनकर चलने ही वाला था कि उसे रविदास जी की बात याद आ गई ! एक किनारे खड़ा होकर उसने हाथ जोड़े और गंगा मईया से अनमने मन से बिनती की , “है गंगा मईया ! यह एक दमड़ी आपके एक भक्त रविदास ने आपके लिए भेंट स्वरुप भेजी है और मुझे बोला है कि मैं यह आपको तभी दूँ जब आप पानी में से अपना हाथ बाहर निकालकर इसे गृहण करें !” लेकिन दूसरे ही क्षण उसके होश उड़ते हुए नज़र आये जब उसने गंगा में एक चमत्कार होते हुए देखा ! धीरे – २ गंगा मईया कमर तक पानी में से ख़ुद प्रकट हुई और बोली , “लायो पण्डित जी ! मेरे भक्त ने मेरे लिए क्या भेजा है ?” कपकपाते हाथों से गंगा राम ने गंगा मईया को रविदास जी की दमड़ी हाथ में रख दी और सोचने लगा कि मैंने गंगा मईया की वर्षों से पूजा की है, मुझे तो कभी ऐसे इन्होने दर्शन दिए नहीं और आज भक्त रविदास की एक दमड़ी परवान करने के लिए झट से प्रकट हो गई ! ख़ैर , रविदास की वजह से ज़िन्दगी में पहली बार उसे भी गंगा मईया के दर्शन नसीब हो गए ! एक दो पल वह वहीं खड़ा यह नूरानी / अलौकिक चमत्कार देखता रहा और फ़िर उसने गंगा मईया को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ! इसके पश्चात जैसे ही वह वापिस चलने लगा , गंगा मईया ने गंगा राम को आवाज़ दी , “सुनो गंगा राम ! यह कंगन मेरी तरफ़ से मेरे सच्चे भक्त रविदास को दे देना !” रंग बिरंगे हीरों जड़ा कंगन देखकर पण्डित जी को एक और झटका लगा , क्योंकि इस से पहले इतना सुन्दर और बहुमूल्य कंगन तो उसने कभी देखा भी नहीं था ! “जी अच्छा!” बोलकर उसने कंगन अपने हाथ में लिया और जेब में डालकर जल्दी – २ रविदास जी की दुकान पर जाने की बजाये , अपने घर की तरफ़ चल दिया !
घर पहुँचकर उसने सारी कहानी अपनी पण्डितायन को सुनाई , कंगन देखकर पण्डितायन भी आश्चर्यचकित रह गई, क्योंकि कंगन तो वाक्य ही बहुत सुन्दर और कीमती था ! पहले तो उसने पण्डित जी से कहा कि यह कंगन मुझे दे दो, मैं ही इसे पहनूँगी ! लेकिन पण्डित जी ने उसे समझाया कि अगर किसी ने इतना कीमती कंगन तुम्हारे हाथ में देखकर पूछा कि तुम्हारे पास यह कहाँ से आया है , तो क्या जवाब दोगी ? जाहिर सी बात है कि हम पर चोरी का इलज़ाम लग जायेगा और हम पकड़े जाएंगे ! यह बात सुनकर तो उसके घरवाली भी सकते में आ गई और आख़िर में दोनों ने मिलकर फ़ैसला किया कि यह कंगन पण्डित जी अपने राजा हरदेव सिंह नागर (उर्फ़ राजा नागरमल) को दे देंगे और राजा अपनी रानी को दे देगा , इतना बेशकीमती कंगन पाने के बाद राजा उनको कोई न कोई उपहार / इनाम तो अवश्य देगा ! जहाँ तक रविदास जी की बात है , तो उसे क्या पता कि गंगा मईया ने उसके लिए कोई तोहफ़ा दिया भी है या नहीं ?
बस यही सोचकर, अगले दिन पंडित गंगा राम राजा नागरमल के दरबार में पहुँच गया और वह हीरों जड़ा कंगन उसने राजा को भेंट कर दिया ! राजा ने कंगन को उलट पलटकर अच्छी तरह देखा और अपनी प्रतिक्रिया देते हुआ बोला , “यह कंगन तो बहुत कीमती है, इसमें कितने बहुमूलय हीरे मोती जड़े हैं, तुम्हारे पास यह कहाँ से आया?” पंडित जी ने उत्तर दिया की कल सुबह जब वह गंगा स्नान करने गया था , तो यह कंगन उसे वहाँ से मिला था , तो मैंने सोचा कि इतना बढ़िया कंगन तो रानी साहिबां ही पहन सकती हैं ! सुनकर राजा बहुत प्रसन्न तो हुआ , लेकिन फ़िर कहने लगा, “यह तो एक ही है , एक हाथ में रानी कंगन पहनेगी तो दूसरा हाथ सूना – २ नहीं लगेगा ? जायो ! इसके साथ का दूसरा कंगन भी लेकर आयो ! राजा की बात सुनकर पंडित जी के होश उड़ गए , उसने बहुत कहा कि महाराज यह एक ही है , आप इसे स्वीकार करें ! लेकिन राजा ने तो अपना फ़रमान सुना दिया , “पंडित गंगा राम ! आपको तीन दिन का समय दिया जाता है , तीन दिनों में दूसरा कंगन भी लेकर आयो , नहीं तो मृत्यु दंड के लिए तैयार रहना !” मरने की संभावित सजा सुनकर पंडित को पैरों के नीचे से जमीन खिसकती हुई अनुभव हुई ! फ़िर उसने राजा को रविदास की दुकान वाली पूरी कहानी सुना दी और यह भी बोल दिया कि ऐसे दूसरे कंगन के बारे में तो भक्त रविदास को ही पता होगा !
पंडित से कीमती कंगन की पूरी कहानी सुनने के बाद राजा ने बोला, “चलो फ़िर ! हम अभी रविदास की दुकान पर ही चलते हैं और दूसरे कंगन के बारे में उसी से पता करते हैं ! दुकान पर पहुँचकर गंगा राम ने राजा के सामने अपने गंगा स्नान की पूरी बात बताई और रविदास जी से मुआफ़ी मांगी कि वह यह कंगन आपको देने नहीं आया और राजा के पास चला गया ! और रविदास जी से हाथ जोड़कर बिनती करने लग गया कि राजा ने तो अपना हुकम सुना दिया है कि इस कंगन की जोड़ी वाला दूसरा कंगन भी उनको दे दो, नहीं तो यह मुझे मौत की सज़ा दे देंगे ! अगर सचमुच मुझे सज़ा हो गई मेरी पत्नी और बच्चे तो भूखे मर जाएंगे ! अत: आप ही मुझ पर कृपा करो, दूसरा कंगन भी राजा को दे दो और मेरी जान बचा दो ! राजा ने भी रविदास से अनुरोध किया कि उस कंगन जैसा एक और कंगन वह उनको दे दे , ताकि इनकी जोड़ी पूरी होने पर वह रानी को तोहफ़े स्वरुप भेंट कर सके ! राजा नागरमल और पंडित गंगा राम की दहनीय स्थिति की बातें सुनकर गुरु रविदास जी ने आँखें बंद करके गंगा मईया को स्मरण किया और फ़िर अपनी दुकान पर आये हुए राजा, उसके नौकर चाकर और अंगरक्षकों , पन्डित को गौर से देखा ! वह भी सब लोग भी बड़ी ही उत्सुकता और बेसब्री से देख रहे थे कि अब क्या होने वाला है ? दुकान में पूरा सन्नाटा छा गया और फ़िर गुरु रविदास जी ने अपनी कठौती राजा नागरमल के सामने रख दी और बोले , “महाराज ! आप इसमें अपना दूसरा कंगन ढूँढ़ के निकाल लो !” पहले तो राजा को रविदास की यह हरकत पसंद नहीं आई कि मिट्टी का बड़ा सा बर्तन, जिसमें रविदास जी जूते बनाने के लिए चमड़े को भिगोने के लिए डाल देते हैं , वह उसने राजा के सामने रख दिया ! वह गुस्से से बोले , “रविदास जी ! यह क्या हरकत है , मैं आपसे कंगन मांग रहा हूँ और आपने यह गन्दी सी कठौती मेरे सामने सरका दी है ?” सुनकर रविदास जी ने फ़िर कहा , “महाराज ! आप एक बार इस कठौती में नज़र तो डालकर देखो ! आपको मन-इच्छित कंगन मिल जायेगा !” गुरु रविदास जी के दोबारा कहने पर राजा ने कठौती के पानी में ध्यान से नज़र मारी तो देखकर दंग रह गया , कठौती में तो एक नहीं , दो नहीं , तीन नहीं , सैकड़ों कंगन , हीरे मोती भरे पड़े हैं !” यह नज़ारा देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई और वह एक झटके से थोड़ा पीछे हट गया ! उनके पीछे हटने के बाद पण्डित ने भी कठौती में झाँका और हीरे मोतियों का खज़ाना उस कठौती में देखकर वह भी आश्चर्यचकित रह गया ! राजा और पंडित का मानसिक संतुलन बिगड़ता देखकर गुरु रविदास जी ने उनके लिए जल मंगवाया और पिलाया ! जल पीकर जब राजा को थोड़ा होश आया तो उसे समझ आया कि यह रविदास जी महाराज तो दरअसल , एक बहुत बड़े सतगुर हैं, मुर्शद , पीर पैगम्बर हैं ! फ़िर उसने गुरु रविदास जी के चेहरे की तरफ़ बड़ी श्रद्धा भाव से देखा, उनका अलौकिक / नूरानी चेहरा देखकर राजा उनके चरणों में गिर गया ! उस चमत्कार के बाद पण्डित ने और वहाँ मौज़ूद सभी लोगों ने गुरु रविदास जी को श्रद्धा भाव से माथा टेका और उस अलौकिक घटना से पहले उनको बोले गए अपने कुवचनों के लिए क्षमा याचना की !
फिर जैसे – २ उसकी बुद्धि थोड़ी स्थिरता में आई, उसका मन शाँत हुआ , उसने गुरु रविदास जी से ब्रह्मज्ञान की बख्शीश लेने के लिए बिनती की, जोकि गुरु जी ने सहर्ष स्वीकार करते हुए उसे नामदान दिया ! उसके बाद पंडित गंगा राम ने भी गुरु रविदास जी से ब्रह्मज्ञान की अमूल्य दात प्राप्त की ! इतना ही नहीं, जैसे २ इस घटना की चर्चा आस पास फ़ैलती गई, और भी अनेक राजे रानियों (जिनमें रानी मीरा बाई, रानी झाली बाई, रानी रतन कुँवर , राजा पीपा, राजा बहादुर शाह, मुग़ल बादशाह सिकंदर लोधी , राजा चन्दर हंस, राजा सांघा , पंडित शरधा राम, राजा बैन सिंह, पन्डित गंगा राम , बीबी भानुमति और राजा चन्दर प्रताप इत्यादि मुख्या तौर पे शामिल थे) ने भी गुरु रविदास जी को अपना ब्रह्मगुरु स्वीकार करते हुए उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके अपना जीवन सफ़ल बनाया !
सतगुरु रविदास जी ने अपने अनुयाईओं को समझाया कि जैसे दीपक जलने से अंधकार दूर भाग जाता है , इसी तरह ब्रह्मज्ञान की रौशनी से हमारे मन में वर्षों से डेरा डाले हुए अज्ञानता / रूढ़िवादी विचार / पाखंडवाद से हमें मुक्ति मिल जाती है ! ज्ञान आज़ादी की राहें अपने आप खोज लेता है! किसी मनुष्य का मन जितना रौशन होगा वह उतनी ही प्राकृतिक शक्तियों को समझने में सक्षम होगा ! और ऐसा बन्दा ही अच्छे समाज का निर्माण कर सकता है ! एक ज्ञानवान पुरुष अपने मन को हमेशा संयम में रखता है और जिस इन्सान का मन संयम में रहता है , वह सदाचारी होता है ! और एक सदाचारी इंसान ही समाज में बाकी लोगों के साथ अच्छा व्यवहार ही करता है, ऐसे अनेक सदाचारी मनुष्यों के मेल-मिलाप से समानता और भाईचारा पैदा होता है ! सदाचारी और प्रउपकारी बन्दे ईश्वर को प्रिय होते हैं, क्योंकि इनके दिल में समानता, दूसरों के लिए दया, करुणा, प्रेम भावना, और भला ही सोचते हैं और सबके लिए खुशियों और सुखों की कामना करते हैं ! और इसी मार्ग पर चलते हुए हम धरती पर और पूरे विश्व में शाँति स्थापित कर पाएंगे ! यह सब तभी संभव हो पायेगा यदि समाज में रहने वाले ज़्यादातर लोगों का दिल-ओ-दिमाग रौशन होगा और मन शुद्ध होगा – अर्थात – “मन चंगा तो कठौती में गंगा” ! और जो इन्सान पाक पवित्र मन से अपनी दैनिक क्रियाएँ करते हुए प्रभु का सिमरण करते हुए जीवन व्यतीत करता है, उसे वेद ग्रंथो से भी शिक्षा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनका अपना जीवन ही एक धर्म ग्रन्थ बन जाता है, और ईश्वर खुद समय – २ उसके मन में आकर उसे नेक / शुद्ध भाव से कार्य करने की दिशा दिखलाते रहते हैं !
सच्चे मन और मैले मन से की भक्ति में अंतर बताते हुए सतगुरु रविदास जी महाराज फ़रमाते हैं देता रहे हज़ार बरस, मुल्ला चाहे अज़ान / रविदास ख़ुदा नहीं मिल सकई, जो लौ मन शैतान !!
इस दोहे में बाबा रविदास जी ने मन की स्वच्छता के महत्तव पर प्रकाश डालते हुए समझाते हैं कि अगर मन में दुष्ट आचार विचार भरे हैं , तो भले ही कोई मुस्लमान बंदा हज़ार वर्ष तक मस्जिद में बैठकर अज़ान देता रहे, परन्तु उसे खुदा का दीदार नहीं हो सकता ! केवल इतना ही नहीं , अपने एक और दोहे में सतगुरु रविदास जी महाराज हिन्दुओं को समझाते हुए फ़रमाते हैं :-
माथै तिलक , हाथ जपमाला , जग ठगने कू स्वाँग रचाया !
मारग छाड़ कुमारग डहकै, साँची प्रीत बिन राम ना पाया !!
पहले दोहे में मुसलमानों के बारे में और इस दोहे में सतगुरु रविदास जी हिन्दुओं के धार्मिक ढकोंसले पर चोट करते हुए फ़रमाते हैं कि माथे पर तिलक लगाकर , हाथ में माला लेकर भगवान का जाप करने का नाटक करने से भी प्रभु प्राप्ति नहीं हो सकती ! ऐसे कर्म करने वाले केवल अंध विश्वास ही फ़ैला रहे हैं, जबकि सच्ची प्रीत तो ईश्वर के बनाये हुए मानव मात्र से प्रेम करने से और उसकी सेवा करने में ही है ! अगर आप ऐसा कर्म करोगे तभी ईश्वर प्रसन्न होंगे और आपको उसकी प्राप्ति भी हो पायेगी !
मन की पवित्रता पर बल देते हुए सतगुरु रविदास जी अपने एक और दोहे में फ़रमाते हैं :-
मन ही पूजा , मन ही धूप / मन ही सेऊँ सहज स्वरुप !
अर्थात – निर्मल मन से ही सच्ची भक्ति सम्भव होती है , यदि मन में किसी के प्रति वैर नहीं , द्वेष भाव नहीं, कोई लालच नहीं है , तो ऐसा मन ही मन्दिर है, धूप है , और ऐसे मन में ही ईश्वर बसते हैं !
पंडित गंगा राम और राजा नागरमल के साथ 1498 में घटी इस घटना के बाद ही यह मुहावरा धीरे २ प्रसिद्द हो गया कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” , अर्थात – अगर आपका मन पवित्र है, शुद्ध है, उसमें कोई मैल – द्वेष, ईर्षा इत्यादि नहीं है, तो आपके घर में ही तीर्थ है , ऐसी स्थिति में तीरथ स्नान करने के लिए या फ़िर किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करने के लिए आपको उस स्थल पर जाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है , आप अपने निर्मल मन से अपने अच्छे कर्म करते जाइये, भगवान इसका फ़ल एक न एक दिन आपको अवश्य ही देगा !