समन्वय मे कविता पाठ और नागा लोक नृत्य की धूम


प्रेमबाबू शर्मा 

नवंबर की भीनी दोपहर में भारतीय भाषा के विविध रूप की झलक लिए समन्वय में शुक्रवार के सत्र की शुरूआत दोपहर दो बजे ‘ पल्प गल्प – हिन्दी में नया पॉपूलर’ पर बहस से हुई। सत्र का संयोजन समन्वय के क्रिएटिव डायरेक्टर गिरिराज किराडु ने किया । सत्र में मौजूद वक्ताओं में अनु सिंह चौधरी, प्रभात रंजन, राजेन्द्र धोड़पकर और सत्यानंद निरूपम थे। पेशे से पत्रकार अनु सिंह चौधरी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मे बनाने का भी शौक़ रखती हैं। उनकी किताब ‘नीला स्कार्फ’ ने हाल ही में हिन्दी साहित्य जगत में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। आनलाइन बुकिंग के प्री बुकिंग सेक्सन में ‘नीला स्कार्फ’ की 1500 प्रतियां बुक हो गई थी। अपने समकालीन किताबों को पीछे छोड़ते हुए अनु सिंह चौधरी की नीला स्कार्फ ने ‘बेस्ट सेलर’ होने का एक नया किर्तीमान रचा है। सत्र में अपने अनुभव पर बात करते हुए अनु ने कहा कि वह ख़ुद को सोशल मीडिया द्वारा बनायी गई लेखिका मा नती हैं। उन्होंने कहा, ” हर लिखने वाले, बोलने वाले की इच्छा होती है कि उसकी बात कोई सुने। आज के दौर में सोशल मीडिया बहुत आसानी से इस चाहत को पूरा करता हुआ नज़र आ रहा है।”

L to R Gillain Wright, Arundhati Subramaniam,K Satchidanandan,Fakrul Ahmad,Arunava Sinha
हिन्दी में पॉपूलर ब्लॉग जानकीपूल के संस्थापक प्रभात रंजन ने पुराने पॉपुलर और पल्प, की आज के पॉपुलर- पल्प से तुलना करते हुए कहा कि , “ पहले गंभीर साहित्य हो या पॉपुलर साहित्य दोनों ही समाज में गहरे धँसे हुए थे। आज ऐसा नहीं है।“ प्रभात जी ने दो तरह के साहित्य की बात की एक पुण्य साहित्य और दूसरा पाप साहित्य।


आज की तारिख में जानकीपुल न केवल हिन्दी साहित्य बल्कि सिनेमा राजनीति व अन्य विषयों पर होनी वाली हर नई बहस का केन्द्र है। पेशे से हिन्दुस्तान अख़बार से जुड़े राजेन्द्र धोड़पकर ने अपनी लेखनी की शुरूआत कविताओं से की थी। राजेन्द्र जी की एक बड़ी पहचान कार्टून के रूप है। आज के समय में हिन्दी मे पॉपूलर राईटिंग पर बोलते हुए धोड़पर जी कहा, ” 70-80 के दशक से अगर तुलना करें तो आज अच्छे साहित्य के पाठक कम हुए हैं। ”

इस बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी भिन्न्-भिन्न भूमिका में चुस्ती के साथ नज़र आते समन्वय के क्रिएटिवर डायरेक्टर सत्यानंद निरूपम, मंच पर हिन्दी के एक बड़े प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय डायरेक्टर की भूमिका में नज़र आए जहाँ उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिन्दी में पाठकों का कैटगराज़ेशन हो गया है उन्होंने कहा ” लोग किताबों के प्रति उदासीन नहीं हुए हैं बल्कि आज पाठक और प्रकाशक के बीच का तंत्र नष्ट हो गया है।”

शुक्रवार के कार्यक्रम का दूसरा सत्र समन्वय के इस साल के थीम – भाषांतर देशांतर पर आधारित था। कभी- कभी भाषा द्वारा और कभी हमारे अपने द्वारा बहुत सारी अनदेखी सीमाएं खींच जाती हैं। समन्वय में इऩ्हीं सीमाओं के पार जाने का दुस्साहस कर कार्यक्रम के संचालक अरूणावा सिन्हा ने कहा कि आज ज़रूरत है अनुवाद को केवल एक लिखे हुए माध्यम से परे अलग रूप में देखने का।

संचालक की बात का समर्थन करते हुए अन्य वक़्ता जिलियन राइट ने कहा, ” हम जिस समय में रह रहे हैं ऐसे में ज़रूरी है कि अनुवाद को सिर्फ़ एक प्रिंट का माध्यम न मानकर इसके आसपास के सभी माध्यम को इसका विस्तार रूप समझना चाहिए। ” अंग्रेज़ी में चले इस सत्र में तमिल के साहित्यकार के. सच्चिदानंद ने तमिल में अनुवाद के इतिहास का ज़िक्र करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि आज भी अनुवाद का तमिल में उतना ही महत्व है जितना पहले था। देशकाल की सीमा से परे भाषा के विविध रूपों की अभिव्यक्त को मंच देने की अपनी प्रतिबद्धता का निर्वाहण करते समन्वय के इस मंच पर बांग्लादेश से आए लेखक फ़खरूल आलम ने एक भाषीय देश में रहने और वहाँ अनुवाद के अपने अनुभवों को दर्शकों के साझा किया। कार्यक्रम में वक़्ता अरुंधति सुब्रमण्यम ने पोएट्री इंटरनैश्नल वेब की इंडिया एडिटर के तौर काम करने के अपने अनुभवों को लोगों से बाँटा।

Samanvay Bhasha Samman to Ashok Vajpayi by Festival Director Rakesh Kacker

इस साल का तीसरा समन्वय भाषा सम्मान जाने माने साहित्यकार, विचारक अशोक वाजपेयी जी को दिया गया। सम्मान में वाजपेयी जी को प्रस्शti पत्र और एक लाख रूपय का चेक दिया गया। मंच पर उनके सम्मान में जाने माने कवि उदय नारायण सिंह, पूर्व आईएचसी निदेर्शक और समन्वय के बीज संस्थापक राज लिब्रहन, गुजराती साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार सीतांशु यशस्चंद्र उपस्थित थे। मंच का संचालन गिरिराज किराडु द्वारा किया गया। निर्णायक मंडल का आभार व्यक्त करते हुए अपने धन्यवाद भाषण में अशोक वाजपेयी जी ने कहा, ” अक्सर मैं दूसरों को पुरस्कार देता आया हूँ आज ख़ुद पुरस्कार लेते हुए अटपटा लग रहा है।” वाजपेयी जी ने भावनाओं के प्रवाह में अपने अध्यापक से लेकर अपनों बहुत सारे दोस्तों कवियों संगीतकारों चित्रकारों का ज़िक्र किया जिनसे जिंदगी के मोड़ पर उन्होंने बहुत कुछ सीखा। उनका कहना था कि चाहे जितना ही कड़ा वक़्त हो नामुमकिन कुछ नहीं होता।


ढलती शाम में जब अंधेरा धीरे धीरे-धीरे पैर पसारता है तब दूर कहीं उम्मीद की किरण हमेशा मौजूद होती है। इसी उम्मीद का दिया लिए दिल्ली से मीलों दूर के इलाक़े बस्तर की भाषा, समन्वय के मंच पर विचारकों और साहित्यकारों के साथ आती है। ‘बस्तर की बदलती बोलियों’ सत्र का संचालन सामाजिक विषयों पर लंबे समय से अपनी आवाज़ बुलंद करते आ रहे पंकज चतुर्वेदी द्वारा किया गया। सत्र में बस्तर में बोली जानी वाली हल्बी, गोंड व अन्य भाषाओं की परिस्थिति पर विचार और विमर्श किया गया। विचारकों का मानना है कि अनुवाद और उस भाषा में काम की उपलब्धता भाषा की स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। सत्र में उपस्थित वक़्ता थे- कट्टर सीताराम, जो 16 से अध्यापन कार्य में कार्यरत हैं तथा इन्होंने दरओली भाषा से हिन्दी में अनुवाद का कार्य भी किया है। उन्होंने हल्बी भाषा के फोंट का अविष्कार कर भाषा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वक्ता राजीव रंजन प्रसाद अपनी किताब ‘आमचो बस्तर’ से लोगों के सामने आए थे। राजीव एक प्रसिद्ध पर्यावरणविद भी है। अन्य वक्ता रूद्रनारायण पाणिग्रही पेशे से वेटेनरी डाक्टर ज़रूर है लेकिन इनकी रूचि फ़िल्म लिखने, डायरेक्ट करने और उसमें बतौर अदाकार काम करने में भी है। बस्तर पर बनी पहली टेलीफ़िल्म का पूरा श्रेय रूद्र को ही जाता है। इनके अलावा भिलाई सम्मान से सम्मानित विक्रम
कुमार सोनी ने अपनी सत्र में उपस्थिति दर्ज की। 
L to R Satyanand Nirupam, Rajendra Dhodapkar,Giriraj Kirado, Annu Singh and Prabhat Ranjan
भाषा के सरोकार पर बात करते हुए समन्वय में सीमाओं की रेखा को लाँघते हुए शाम के तमिल सत्र बोलते हुए तमिल विद्वान और अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में प्राध्याप रंजन कुरारी कृष्णन ने कहा की अन्य वक्ताओं में तमिल थिएटर से जुड़ी निर्देशक और अदाकारा ए.मंगई और पेशे से डाक्टर, सामाजिक सेविका कवयित्री और गीतकार कुट्टी रेवती की शामिल थीं। सत्र में भारत और श्रीलंका के तमिलों की राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों पर विस्तार से चर्चा की गई। यह सत्र भाषा की समग्रता और उसकी विविधता में भी एकता को प्रस्तुत करता हुआ अपने आप में एक अद्भूत सत्र था जिसकी गूँज मंच से निकल इंडिया हैबिटेट सेंटर के हर कोने में सुनाई पड़ रही थी।

अगर बात हो भाषा की तो बॉलीवुड या हिन्दी फ़िल्म जगत का प्रतिनिधित्व होना लाज़मी है। ‘किसका शहर किसकी ज़ुबान’ सत्र में बम्बई से आए इरशाद कामिल, अल्ताफ़ टायरवाला सौरभ शुक्ला और जारी पिंटो ने शिरकत की। सत्र में लेखक और जेंडर के प्रति लोगों को जागरूक करने वाले राकेश कुमार सिंह भी शामिल थे। भाषा किसकी है? कौन इसे बोल रहा है? कहाँ बोल रहा? ऐसे कई सवालों को लेकर शुरू हुए इस सत्र ने लोगों के सामने कई नई अवधारणों को प्रस्तुत कर लोगों को चकित कर दिया।

अंत में कविताओं की और लौटते हुए ‘शब्द बिम्ब और रूपक’ के परिप्रेक्ष्य में प्रसिद्ध कलाकार नाटककार रामगोपाल बजाज ने कविता पाठ किया। आज के सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत नागा लोक नृत्य प्रस्तुत कर नागालैंड से आए लोककलाकार अबोलो नागा, तेत्सेओ सिस्टर्स, मैनयांग किचू और सेपोंगला संगतम ने लोगों को अपने संगीत से नतमस्तक कर दिया। संगीत की कोई ज़ुबान नहीं होती उसका काम तो बस लोगों को संगीत में डुबों कर ऐसे मुक़ाम पर पहुँचाना है जहाँ सारे भेद मिट जाते हैं।