मनुष्य ने आज बुद्धि को तो विकट रूप से बढ़ा लिया है, किन्तु उस पर नियंत्रण करना नहीं सीखा है । बुद्धि का अनियन्त्रित विकास केवल दूसरों के लिए ही दुःखदायी नहीं होता, स्वयं अपने लिए भी हानिकर होता है । अतिबुद्धि मानव को चिन्तन, असन्तोष की ज्वाला में ही जलना होता है । वह बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाता । एक बुद्धिवादी कितना ही शास्त्रज्ञ, विशेषज्ञ, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता आदि क्यों न हो, बुद्धि का अहंकार उसके ह्दय में शान्ति को न ठहरने देगा । वह दूसरों को ज्ञान देता हुआ भी आत्मिक शान्ति के लिए तड़पता ही रहेगा । बुद्धि की तीव्रता पैनी छुरी की तरह किसी दूसरे अथवा अपने को दिन रात काटती ही रहती है । मानव की अनियन्त्रित बुद्धि, शक्ति मनुष्य जाति की बहुत बड़ी शत्रु है । अतएव बुद्धि के विकास के साथ-साथ उसका नियंत्रण भी आवश्यक है ।
किसी शक्तिशाली का नियंत्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता है । तब भला समग्र सृष्टि को अपनी मुठ्ठी में करने वाली बुद्धि का नियंत्रण करने के लिये कौन-सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है ? मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है-श्रद्धा, जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका नियंत्रण किया जा सकता है । श्रद्धा के आधार के बिना बुद्धि एक बावले बवण्डर से अधिक कुछ भी नहीं है । श्रद्धा रहित बुद्धि जिधर भी चलेगी, उधर दुःखद परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करेगी ।
मानवता के इतिहास में दो परस्पर ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाये जाते हैं । एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने तथा मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है । दूसरा वर्ग वह है जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने, देश और जातियों को बचाने के लिए तप किया है, संघर्ष किया है और प्राण दिये हैं । इतिहास के पन्नों पर आने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धि-बल वाले रहे हैं । अन्तर केवल यह रहा है कि श्रद्धा के अभाव में एक की बुद्धि-शक्ति अनियन्त्रित होकर बर्बरता का सम्पादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धि-बल श्रद्धा द्वारा नियन्त्रित होने से सज्जनता का प्रतिपादन करता रहा है ।
आज अवसर है, साधन हैं । मनुष्य चाहे तो सृजन का देवदूत बन सकता है और चाहे तो शैतान का अनुचर ।