सुन्दरकाण्ड- सभी सुन्दर हैं !!!

मधुरिता

इसकी शुरुआत वर्णनामार्थ संसाधना से किया है। वर्ण कहते हैं अक्षर अर्थात जो नित्य है वही सत्य है। अंत में उत्तर कांड में “मानव “शब्द आया है। … जो हम सन्सार रूपी सूर्य की प्रचण्ड किरणों से दुखी मानवों विज्ञान भक्ति प्रदम तथा शिव कर्म रूपी फल प्राप्त कर लेते हैं, अतः यह रामचरितमानस रूपी वृक्ष का कल्याणकारी फल होकर सुन्दरकाण्ड तने की [साधनाकांड] है।

स्वामी तुलसीदास जी ने आठ सोपान में रामचरितमानस को लिखा है -बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड , उत्तररामायणकांड एवं लवकुश कांड हैं।

इसमें जो पंचम सोपान सुन्दरकांड तुलसीदास जी की रचित ऐसी अमूल्य निधि है जिसका वर्णन वाणी से करना संभव नही है। केवल भावपूर्ण भक्ति से सुनना , पढ़ना और इसका मनन करने से ही इस सुंदरता रूपी रास का आनंद ले सकते हैं.

भावमयी दृष्टि से देखने पर तो ये सातों सुरों से अलंकृत हैं , जो संगीतमय होकर नवधा भक्ति से ओत -प्रोत हैं. जितने भी भी उपमा एवं उपमये हैं इन सब से पर सुन्दरकाण्ड का जीवन में पदार्पण होता है.

जहां आनंद का समावेश व भक्ति रूपी गंगा का गुणगान हो वहां स्वतः सौंदर्य उत्कृष्ट पराकाष्ठा को पार कर जाते हैं, फिर हमें उनका वर्णन करना तो दुर्लभ ही जान पड़ता है, यह वैसे ही है जैसे जिसने उसे चखा है वही आनंद का अधिकारी बन सकता है।

ज्ञानियों में अग्रगण्य सम्पूर्ण गुणों के निधन वानरों के स्वामी श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवनपुत्र अंजनी के लाल श्री हनुमान जी महाराज को कोटि कोटि नमन। अंजनी माँ हनुमान जी को सुन्दर भी कहती थी इसमें उनका वर्णन होने के कारन इसका नाम सुन्दरकाण्ड पड़ा।

इसकी शुरुआत ही मन भावना से हुई है , सुन्दर शब्द की अमर-व्याख्या सुधा बहुत आदरणीय व चित्त को द्रवित करने वाली है। इस कांड में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है जो अंतमन में आदर न उत्पन्न करे. भक्ति से बह रहे रंगों में हनुमान जी ही नज़र आते हैं।

सबको मस्तक नवा कर तथा ह्रदय में श्रीरघुनाथ को धारण कर हनुमान जी हर्षित होकर सीता माता [ भक्ति] की खोज करने जाते हैं।

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान हनुमान उस पर से बड़े वेग से उछले।

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥

समुद्र ने उन्हें रघुनाथ का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करनेवाला है (अर्थात अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)।

दो० – हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥ 1॥

हनुमान ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा – भाई! राम का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥ 1॥

समुन्द्र किनारे पहुँचते है समुंद्री राक्षसी और लंका में प्रवेश करते है लंकनी मिलती है , सभी बाधाओं को ऋद्धि- सिद्धि का प्रयोग कर हनुमान जी लंका में प्रवेश करते हैं।

छं० –

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत-से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं; सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीरवाले बड़े ही बलवान मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं।

ऐसे वर्णातीत लंका में हनुमान जी की मित्रता विभीषण से होती है , वे हनुमान जी को माता सीता का पता बताते हैं। अशोक वाटिका में पहुँच कर वे देखते हैं की कपटी रावण सीता माता को अपनी पटरानी बनाने का प्रलोभन दते हुए साम -दंड-भेद नीति से उन्हें आतंकित कर रहा है.

स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥

(सीता ने कहा -) हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड़ के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है।

सीता व्याकुल होकर प्रभु श्रीराम को याद करती है , उसी समय हनुमान जी राम नाम अंकित मनोहर अंगूठी माता के सन्मुख डाल देते हैं।

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीता आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं।

सीता माता को संदेह होता है की कहीं यह माया का खेल तो नहीं है ? तब हनुमान जी अपना विशालकाय शरीर प्रगट करते हैं और माता को अपने राम भक्त होने का भरोसा दिलाते हैं।

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥

हे माता! सुनो, सुंदर फलवाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीता ने कहा -) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं।

हनुमान जी अशोक वाटिका के वृक्षों को उजाड़ देते हैं, और राक्षसों और रक्वालों को मसल देते हैं , तब मेघदूत उन्हें ब्रह्मपाश में बांध कर रावण के समीप ले जाते हैं रावण व हनुमान जी का प्रसंग बहुत ही मनोहारी है। जिसके लवलेश मात्र से ही महान बने हो , जिनके बल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश सृष्टि का सृजन पालन और संहार करते हैं , में उन्हें राम जी का दूत हुँ. ऐसा परिचय केवल रामभक्त हनुमान जी ही दे सकते है.

ढोल नगाड़ों के बीच हनुमान जी ने सारी लंका जला दी केवल रामभक्त विभीषण का घर सुरक्षित रहा। छोटा रूप धर कर हनुमान जी जानकी जी के सन्मुख हाथ जोड़ कर खड़े हुए और और उनसे चूड़ामणि लेकर श्रीराम के पास पुनः वापस आते हैं।

सारा वृतांत सुन कर राम के नयन भर जाते हैं ,प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिव प्रेममग्न हो गए।

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥

फिर मन को सावधान करके शंकर अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे – हनुमान को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया।

राम जी का आदेश मिलते ही वानर , भालू और रीछ की सेना विजय घोष करते हुए समुन्द्र तट पर आ उतरी। लंका में केवल एक दूत [अंगद] के आगमन से ही आतंक छा गाय. मंदोदरी का रावण से वार्तालाप कारन अत्यंत मर्मस्पर्शी है।

मुनि पुलत्स्य जी, मंत्री मलयवान , छोटे भाई विभीषण के अनुनय-विनय करने पर रावण क्रोधित होकर उन्हें राज्य से बाहर निकाल देता है।

विभीषण का श्रीराम से मिलाना होता है। जो सम्पत्ति रावण अपन दस शीश देने के बाद रावण को लंका स्वरुप मिली थी उसे करुणानिधान श्रीराम सहज ही विभीषण को दे देते हैं।

राम सेना का समुन्द्र पार करने का प्रसंग भी अत्यंत रोचक है। तीन दिन बीत जाने के बाद भी जब समुन्द्र के ऊपर वंदन करें का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तब श्रीराम जी धनुष वाण उठा लेते हैं

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥

हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),

ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)।

तब समुन्द्र हाथ जोड़ कर प्रगट होते हैं और मर्यादा में रहते हैं ,नलनील ऋषि द्वारा प्रदत वरदान के कारण भारी भारी पत्थरों को रामनाम लिख कर समुन्द्र में तैरा कर पूल बांधते हैं। समस्त सेना प्रभु राम को अपने ह्रदय में धारण कर युद्ध की तैयारी करते हैं।

भगवान ने स्वयं कहा है की वे साधु -संतों , भक्तों का कल्याण करने व उन्हें संसार से तारने के लिए समय समय पर प्रगट होते हैं। पूर्ण शरणागत हनुमान नाम का आश्रय लेकर इतना जटिल और असंभव कार्य कर पाते हैं।

यह संसार रूपी रोग की औषधि है। श्री रघुनाथ जी गुणगान सम्पूर्ण संपूण सुन्दर मंगलों को देने वाला है। जो सुन्दर कण को आदर सहित पढेंगें, सुनेगें या मनन करेगें वे सहज ही अन्य साधनों के प्रयोग किये बिना ही भवसागर तर जायेंगें।

हनुमान जी सेतु का कार्य करते है , भक्तों व भगवान के मध्य यही सुन्दरकाण्ड का स्वतः सिद्ध सत्य है.