कई तरह के योगों के बारे सुना गया है जैसे —– ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग , राजयोग आदि परन्तु इनको समझने के लिए जिस चीज़ कि आवश्कता होती है वही है ———- विचार योग !
सभी जीव विचारों का पुतला मात्र हैं। यह सारा संसार विचार के ही अधीन है। विचार ही सबका शासक है , परन्तु इस विचार पर बहुत कम ध्यान दिया गया है . ज्योंही हम विचारों को परखना / परिक्षण शुरू कर देते हैं तो विचार कि गुत्थी अपने आप सुलझ जाती है। जिस प्रकार जादूगर के जादू को जो व्यक्ति समझ लेता है या जान जाता है तो , जादू हाथ कि सफाई मात्र हो जाती है।
जिस प्रकार कंप्यूटर तकनीक जान लेने पर उसका सदुपयोग कर सकते हैं उसी प्रकार विचारों कि तकनीक जान कर उसका सदुपयोग किया जा सकता है . मन को खुद ही संयमित करना पड़ता है कोई दूसरा इसे संयमित नही कर सकता है . ज्योहीं मनुष्य दूसरे पर निर्भर होना शुरू कर देता उसके विचार कमज़ोए पड़ते जाते हैं . अतः इसके लिए स्वयं ही दीपक बनना पड़ता है . अतः इसमें परम पुरुषार्थ कि आवश्कता होती है . विचार – योग तलवार के धार पर चलने वाले व्यक्ति कि तरह सावधान होकर किया जा सकता है .
विचारों कि उत्पत्ति का स्थान हमारा मन ही है या कह सकते हैं कि मन विचारो का पुंज मात्र है। विचार योग विचारो कि तकनीक है , जिस तरह कंप्यूटर एक तकनीक है ।
एकाग्रता = एक + अग्रता। इसलिए एकाग्रता का अर्थ हुआ एक विचार को लेकर आगे बढ़ना ज्यों ही दूसरा विचार आ जात है तो एकाग्रता नही रहती है। इसलिए एकाग्रता का अर्थ हुआ एक विचार को पूरा मन मस्तिष्क लगा कर आगे बढ़ने कि कला .
एकाग्रता यानि एक विचार . एकाग्रता ही सभी प्रकार के ज्ञान कि नीव है . जिसने भी इस कला में दक्षता हांसिल कर ली , उन्हें सफलता अवश्य मिली फिर वह क्षेत्र चाहे वैज्ञानिक, सांसारिक, या अध्यात्मिक हो .
इस पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी तथा वस्तु का अपना एक विशिष्ट स्वाभाव है . हवा का गुण है चलना, आग का गुण है जलना और जल का धर्म है बहना . ठीक इसी प्रकार मन का भी स्वाभाव है हर पल चरों और दौड़ना, पागल एक सामान उछल कूद मचाना , सपने देखन , चिंता करना , हवाई किले बनाना अपने कर्तव्यों कर्मों को छोड़ कर अन्य बातों का विचार और चिंतन करना . ऐसी परिस्थिति में मनुष्य उनके तालों पर नाचने के सिवाय कर भी क्या सकता है ? पांच ज्ञानेन्द्रियों कि भूमिका —– आँख, कान नाक , जिह्वा और त्वचा ये पाँच इन्द्रियां यंत्र हैं . ये इन्द्रियां ही मन को विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं . परन्तु बिना कुछ कहे सुने पागल के सामान दौड़ने वाले इस मन को भला कैसे अपना कहा जा सकता है . जो मन इंद्रियों के सहारे विषयों में डूबा रहता है वह निश्चित रूप से हमारा नहीं है .
हमारे मन में अद्बुत शक्ति निहित है पर यह शक्ति सभी प्रकार के आवश्यक तथा अनावश्यक कार्यों में ही नष्ट होती जा रही है , अतः हम केवल सामान्य क्रियाकलापों में ही सक्षम हो पाते हैं .
यदि किसी व्यक्ति का मन उसके स्वयं के नियंत्रण में है तो उसके द्वारा महान उपलब्धियां सम्भव है . जबकि यदि वह उसके नियंत्रण में नही है तो यहाँ तक कि साधरण से साधरण कार्य भी उसे कठिन तथा असम्भव लगते हैं .
मन विराट शक्तियों का आगार है , तथापि जीवन में कुछ ज्ञानी लोग आते हैं जो अपने विवेक – ज्ञान के द्वारा मन को वश में करने कि विद्या बताते हैं .
जिसने मन को जीत लिया उसने सारे संसार को जीत लिया . मन के हारे हार है मन के जीते जीत . यही सकारात्मक विचार हमें स्वर्ग कि ओर ले जाता है और नकारात्मक विचार नरक के गर्त में गिरा सकता है . ऐसा विवेक ही बुद्धत्व है . आइये हम खुद दीपक बने व अपना रास्ता खुद ही प्रकाशित करें .