बैंगलोर
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
यानी अपनी भाषा से ही उन्नति सम्भव है, यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। भाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण सम्भव नहीं है।
हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा है. इसकी सुदीर्घ विकास यात्रा में कई मोड़, कई उतार-चठ़ाव रहे लेकिन चुनौतियों का सामना करते हुए हिन्दी ने अपने अस्तित्व की निर्मिति की। ऐतिहासिक रुप से देखे तो अवधी ब्रज फारसी पाली प्राकृत अपभ्रंष आदि सोपानों को पार कर 19 वी सदी में आकर हिन्दी ने अपना आकार ग्रहण किया पहली बार सही मायनों में हिन्दी की खड़ी बोली का इस्तेमाल अमीर खुसरों की रचनाओं में देखने को मिलता है. इसके बाद हिन्दी का प्रसार मुगलों के साम्राज्य में ही हुआ. इसके अलावा खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार में संत संप्रदायों का भी विशेष योगदान रहा जिन्होंने इस जनमानस की बोली की क्षमता और ताकत को समझते हुए अपने ज्ञान को इसी भाषा में देना उचित समझा. भारतीय पुनर्जागरण के समय भी श्रीराजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान नेताओं ने हिन्दी की खड़ी बोली का महत्व समझते हुए इसका प्रसार किया और अपने अधिकतर कार्यों को इसी भाषा में पूरा किया. हिन्दी के लिए 19 वी सदी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रही. इस सदी में हिन्दी गद्य का न केवल विकास हुआ, वरन उसे मानक रूप प्राप्त हुआ. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने खड़ी बोली के विकास का जो दीप प्रज्जवलित किया उसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मानक रुप प्रदान किया फिर हिन्दी को और भी प्रसार दिया महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और सुमित्रानंदन पंत जैसे छायावादी रचनाकारों ने. इस प्रकार आधुनिक काल तक आते-आते हिन्दी अपनी पूर्णता को प्राप्त करने में सफल हुई। आजादी की लड़ाई में हिन्दी ने विशेष भूमिका निभाई. देश के क्रांतिकारियों ने जनमानस से संपर्क साधने के लिए इसी भाषा का प्रयोग किया. हिन्दी हिन्दुस्तान को बांधती है. कभी गांधीजी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था यह भाषा है हमारे सम्मान, स्वाभिमान और गर्व की. हिन्दी ने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है. लेकिन जब भारत आजाद हुआ तब कुछ तथाकथित राष्ट्रवादियों की वजह से हिन्दी को उसका वह सम्मान नहीं मिल सका जिसकी उसे जरूरत थी. कई गुटों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को बनाने का विरोध किया पर कुछ नेता ऐसे भी थे जो हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के हिमायती थे. इसलिए जब पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी के साथ ही चलाते रहने का फैसला किया. लेकिन यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं कि जिस हिन्दी को हजारों लेखकों ने अपनी कर्मभूमि बनाया, जिसे कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी देश की शान बताया उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि सिर्फ राजभाषा की ही उपाधि दी गई. संविधान ने 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया था. भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में यह वर्णित है कि “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा.इसके बाद साल 1953 में हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन क्या हिन्दी को सिर्फ राजभाषा तक ही सीमित रखना उचित है? आखिर क्या जनमानस की इस भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने का हक नहीं है? जिस हिन्दी को संविधान में सिर्फ राजभाषा का दर्जा प्राप्त है उसे कभी गांधी जी ने खुद राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी. सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. लेकिन आजादी के बाद ना गांधीजी रहे ना उनका सपना. सत्ता में बैठे और भाषा-जाति के नाम पर राजनीति करने वालों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया. जब 1949 में पहली बार हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण हिन्दी प्रसार सभा का गठन भी कराया ताकि 15 सालों के कार्यकाल में वह हिन्दी को दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय और आम बोलचाल की भाषा बनाए लेकिन ऐसा हो नहीं सका. 1949 में जब हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था तक तय किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 से सिर्फ हिन्दी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी. लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे अंग्रेजी हिन्दी के साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका परिणाम यह निकला कि आज भी हिन्दी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है.
जाति और भाषा के नाम पर राजनीति करने वाले चन्द राजनेताओं की वजह से देश का सम्मान बनने वाली भाषा सिर्फ राजभाषा तक ही सीमित रह गई. बची-खुची कसर आज के बाजारीकरण ने पूरी कर दी जिस पर अंग्रेजी की पकड़ है. आज हिन्दी जानने और बोलने वाले को बाजार में एक गंवार के रूप में देखा जाता है. जब आप किसी बड़े होटल या बिजनेस क्लास के लोगों के बीच खड़े होकर गर्व से अपनी मातृभाषा का प्रयोग कर रहे होते हैं तो उनके दिमाग में आपकी छवि एक गंवार की बनती है. ऐसे में यहि कहा जा सकता है कि-
अ्रग्रजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाशा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
यानी की अंग्रेजी पढ़ के कोई सर्वगुन सम्पन्न तो कहला सकता है परन्तु बिना अपनी भाशा के ज्ञान के हीन ही रह जाते है।
उपरोक्त सभी बातें जहां हिन्दी के गौरवपूर्ण इतिहास पर प्रकाश डालती हैं तो वहीं हिन्दी की बर्बादी के मुख्य कारणों को भी समान रूप से उभारती हैं. लेकिन ऐसा नही हैं कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल ही नहीं सकता. जानकार मानते हैं कि अगर आज भी पूरा हिन्दुस्तान एक होकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए राजी हो जाए तो संविधान में उसे यह स्थान मिल सकता है. तो चलिए आज एक लहर की शुरुआत करें अपनी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए. जय हिन्द जय हिंदी.